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कल्पसूत्र
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नहीं, किन्तु कुछ कम सत्तर (७०) वर्ष तक केवलीपर्याय में रह करके, इस प्रकार पूर्ण सत्तर वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन करके, कुल सौ वर्ष तक अपना सम्पूर्ण आयु भोगकर वेदनीय कर्म, आयुष्यकर्म, नाम कर्म, और गोत्र कर्म के क्षीण होने पर दुषम- सुषम नामक अवसर्पिणी काल के बहुत व्यतीत हो जाने पर, वर्षाऋतु का प्रथम मास, द्वितीय पक्ष, अर्थात् जब श्रावण मास का शुक्ल पक्ष आया, तब श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन सम्मेद शिखर पर्वत पर अपने सहित चोतोस- पुरुषों के साथ ( १ पार्श्वनाथ और दूसरे तेतीस श्रमण इस प्रकार कुल ३४) मासिक भक्त का अनशन कर पूर्वाह्न के समय, विशाखा नक्षत्र का योग आने पर दोनों हाथ लम्बे किये हुए इस प्रकार ध्यान मुद्रा में अवस्थित रह कर काल धर्म को प्राप्त हुए, यावत् सर्वं दुःखों से मुक्त हुए ।
मूल :
पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणियस्स कालगतस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स दुवालस वाससयाडं विइक' ताई तेरसमस्स य वाससयस्स अयं तीसइमे संवच्छरकाले गच्छइ ॥ १६० ॥
अर्थ - पुरिसादानीय अर्हतु पार्श्व को कालधर्म प्राप्त हुए, यावत् सर्व दुःखों से पूर्ण तया मुक्त हुए बारह सौ वर्ष व्यतीत हो गये' और यह तेरह सौ वर्ष का समय चल रहा है ।
• अर्हत् अरिष्टनेमि
मूल
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तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिनेमी पंचचित्त होत्था, तं जहा - चित्ताहि चुए चइत्ता गब्र्भ वक्क ते जाव चित्ताहि परिनि
॥ १६९॥
अर्थ - उस काल उस समय अर्हत् अरिष्टनेमि पाँच चित्रा युक्त थे, अर्थात्