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पुस्वादानीय महत् पार्श्वनाथ : परिनिर्वाण जाव चउत्थाओ पुरिसजगाओ जयंतकडभूमि तिवासपरियाए अंतमकासी ॥१५८॥
अर्थ-पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समय में अन्तकृतों की भूमि अर्थात् सर्व दुःखों का अन्त करने वालो की भूमिका दो प्रकार की थी। जैसे कि एक तो युग-अतकृत भूमि, और दूसरी पर्याय-अन्तकृत् भूमि । यावत् अर्हत पार्श्व से चतुर्थ युगपुरुष तक युगान्तकृत भूमि थी अर्थात् चतुर्थ पुरुष तक मुक्ति मार्ग चला था । अर्हत् पार्श्व का केवलीपर्याय तीन वर्ष का होने पर अर्थात-उनको केवलज्ञान हुए तीन वर्ष व्यतीत होने पर किसी साधक ने मुक्ति प्राप्त की। अर्थात् मुक्तिमार्ग प्रारम्भ हुआ। वह उनके समय की पर्यायान्तकृतभूमि हुई। मल:
तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए तीसं वासाई अगावासमज्झे वसित्ता, तेसीति राइंदियाई छउमस्थपरियाय पाउणित्ता, देसूणाई सत्तरि वासाई केवलिपरियायं पाउणित्ता, बहुपडिपुन्नाई सत्तरि वासाई सामनपरियायं पाउणित्ता, एक्क वाससयं सव्वाउयं पालित्ता खीणे वेयणिज्जाउयनामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसूसमाए समाए बहुवीइकताए जे से वासाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे सावणसुद्धे तस्स णं सावणसुद्धस्स अहमीपक्खेणं उप्पि सम्मेयसेलसिहरंसि अप्पचोत्तीसइमे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुव्वण्हकालसमयंसि वग्धारियपाणी कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ॥१५॥
अर्थ- उस काल उस समय पुरिसादानीय अर्हत् पार्श्व तीस वर्ष तक गृहवास में रहकरके, तिरासी (८३) रात्रि दिन छप्रस्थ पर्याय में रह करके, पूर्ण