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कल्प सूत्र
श्रीकृष्ण ने महाराजा उग्रसेन की रूपवती कन्या राजीमतो की याचना की । राजीमती सर्वलक्षणों से सम्पन्न, विद्युत् और सौदामिनी के समान प्रभावाली राजकन्या थी । २१ राजीमती के पिता उग्रसेन ने कृष्ण से कहा- “कुमार, यहाँ बाएँ तो मैं उन्हें अपनी राजकन्या दूँ ।" श्री कृष्ण ने स्वीकृति प्रदान की ।
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दोनों ओर विवाह की तैयारियाँ होने लगी । मंगलगीत गाये जाने लगे। अरिष्टनेमि को सर्व औषधियाँ के जल से स्नान कराया गया, कौतुकमंगल किये गये, दिव्य वस्त्र और आभूषण पहिनाये गये । वासुदेव श्रीकृष्ण के मदोन्मत्त गधहस्ती पर वे आरूढ हुए । उस समय वे इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो मस्तक पर चूडामणि हो । सिर पर छत्र सुशोभित हो रहा था। दोनो और चमर बीजे जा रहे थे । दशार्ह चक्र से वे चारो ओर से घिरे हुए थे। वाद्यों से नभ गूंज रहा था । चतुरगिनी सेना के साथ उनकी बरात आगे बढी चली जा रही थी। सभी का हृदय खुशी से उछालें मार रहा था ।
• तोरण से लौट गए
उस युग में मांसाहार का बहुत अधिक प्रचार था। राजा उग्रसेन ने बरातियों के भोजन के लिए सैकड़ों पशु और पक्षी एकत्रित किये । वर के रूप में जब अरिष्टनेमि वहाँ पहुँचे, तो उन्हें एक वाड़े में बंद किए हुए पशुओ का करुण क्रन्दन सुनाई दिया। उनका हृदय दया से द्रवित हो गया । "
भगवान् ने सारथी से पूछा - 'हे महाभाग ! ये सब सुखार्थी जीव वाड़ों और पिंजरों में किसलिए डाले गये हैं ? सारथी ने कहा- "ये समस्त भद्र प्राणी आपके विवाह कार्य मे आये हुए व्यक्तियों के भोजन के लिए हैं ।
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करुणामूर्ति अरिष्टनेमि ने सोचा- 'मेरे कारण से ये बहुत से जीव मारे जाते हैं, तो मेरे लिए यह भविष्य में कल्याणप्रद नही होगा । यह कहकर उन्होंने अपने कुण्डल, कटिसूत्र आदि आभूषण उतार कर सारथी को दे दिये और रथ को मोड़ने के लिए कहा - "सारथि ! वापस चलो ! मुझे इस प्रकार का हिंसाकारी विवाह नहीं करना है ।' श्रीकृष्ण आदि बहुतों के समझाने पर भी वे नही माने और द्वारिका की ओर बिना व्याहे ही लौट चले ।