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पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वनाथ : कमठ का उपसर्ग
• कमठ का उपसर्ग
मूल :
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पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तेसीइं राइंदियाई निच्च वोसकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा - दिव्वा वा माणुस्सा वा, तिरिक्खजोणिया वा, अणुलोमा वा पडिलोमा वा, ते उप्पन्न सम्मं सहह तितिक्खर खमह अहियासेइ ॥ १५४ ॥
अर्थ - पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व तेरासी (८३) दिनों तक नित्य सतत शरीर की ओर से लक्ष्य को व्युत्सर्ग किए हुए थे । अर्थात् उन्होने शरीर का ख्याल छोड़ दिया था । इस कारण अनगार दशा में उन्हें जो कोई भी उपसर्ग हुए, चाहे वे दैविक थे, मानवीय थे, या पशु-पक्षियों की ओर से उत्पन्न हुए थे, उन उपसर्गों को वे निर्भय रूप से, सम्यक् प्रकार से सहन करते थे, तनिक मात्र भी क्रोध नहीं करते, उपसर्गों की ओर उनकी सामर्थ्य युक्त तितिक्षा वृत्ति रहती और वे शरीर को पूर्ण अचल और दृढ़ रखकर उपमर्गों को सहन करते थे ।
विवेचन - भगवान् पार्श्वनाथ ने पोष कृष्ण एकादशी के दिन संयम लेकर वाराणसी से प्रस्थान किया । संयम साधना, तप आराधना करते हुए एक ग्राम के सन्निकट तापसों के आश्रम में पधारे। कुए के सन्निकट वट वृक्ष के नीचे वे ध्यान लगाकर खड़े हो गये । कमठ तापस, जो मरकर मेघमाली देव बना था, अवधिज्ञान ( विभंगअज्ञान ) से भगवान् को ध्यानस्थ देखकर वहाँ आया । पूर्व वैर को याद करके सिंह हस्ती, रीछ, सर्प, बिच्छू, प्रभृति बनकर भगवान् को नाना प्रकार से कष्ट देने लगा, तथापि भगवान् सुमेरु की तरह स्थिर रहे, अपने अडिग धर्म ध्यान से विचलित नही हुए, तब उसने ख्रिमियाकर गंभीर गर्जना करते हुए अपार जलवृष्टि की । नासाग्र तक पानी आ जाने पर भी भगवान् का ध्यान भग्न नहीं हुआ । उस समय अवधिज्ञान मे धरणेन्द्र ने मेघमाली के उपसर्ग को देखा, तब धरणेन्द्र देव ने सात फनों से छत्र बनाकर उपसर्ग का निवारण किया । भक्ति भावना से गद्गद् होकर उसने भगवान् की स्तुति की। ध्यानमग्न समदर्शी भगवान् न तो स्तुति करने वाले धरणेन्द्र देव पर तुष्ट हुए और न