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बहुले तस्स णं पोसबहुलस्स एकारसीदिवसेणं पुव्वण्हकालसमयंसि विसालाए सिवियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए तं चैव सव्वं नवरं वाणारसिं नगरिं ममं मझणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव आसमपए उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, ठावित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, सीयाओ पच्चोरुहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं
ओमुयति, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, पंचमुट्ठियं लोयं करित्ता अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमायाय तिहिं पुरिससएहिं सद्धि मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पब्वइए ॥१५३॥
अर्थ-पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व को मानवीय गृहस्थ-धर्म से पहले भी उत्तम आभोगिकज्ञान (अवधिज्ञान) था। वह सारा वर्णन भगवान् महावीर के वर्णन के समान यहाँ भी समझना चाहिए । अभिनिष्क्रमण के पूर्व वार्षिक दान देकर के, हेमन्त ऋतु के द्वितीय मास, तृतीय पक्ष, अर्थात् पोष मास के कृष्ण पक्ष की ग्यारस के दिन, पूर्व भाग के समय (चढ़ते हुए प्रहर मे) विशाला शिविका में बैठकर देव, मानव, और असुरों के विराट् समूह के साथ (भगवान महावीर के वर्णन के समान) वाराणसी नगरी के मध्य में होकर निकलते है । निकलकर जिस ओर आश्रमपद नामक उद्यान है, जहां पर अशोक का उत्तम वृक्ष है, उसके सन्निकट जाते है। सन्निकट जाकर के शिविका को खड़ी रखवाते है । शिविका खड़ी रखवाकर के शिविका से नीचे उत्तरते हैं। नीचे उतरकर, अपने ही हाथों से आभूषण, मालाएं और अलंकार उतारते हैं। अलकार उतारकर, स्वयं के हाथ से पंच-मुष्ठि लोच करते हैं। लोच करके निर्जल अष्टम भक्त करते हैं। विशाखा नक्षत्र का योग आते ही, एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर दूसरे तीन सौ पुरुषों के साथ मुडित होकर गृहवास से निकलकर अनगार अवस्था को स्वीकार करते हैं।