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- नाग का उद्धार
एक दिन राजकुमार पार्श्व राजप्रासाद के गवाक्ष में बैठे हुए नगरावलोकन कर रहे थे कि अर्चना की सामग्री लिए हुए जन-समूह को नगर के बाहर जाते हुए देखा । कुतूहलवश कुमार ने पूछा- 'क्या आज कोई महोत्सव है, या अन्य कोई विशेष प्रसंग है जिस कारण ये लोग जा रहे हैं ?'
- उत्तर मिला कुमार वर । नगर के बाहर एक कमठ नापक उग्र तपस्वी आया हुआ है, जो पंचाग्नि-तप तप रहा है, वह बहत उग्र तपस्वी है। उसकी पूजा और अर्चना करने के लिए ही ये लोग जा रहे है ।
कुतूहलवश राजकुमार पाव भी कमठ को देखने के लिए चले। यह कमठ वही था जिसका सम्बन्ध पार्श्वनाथ के जीव के साथ पिछले अनेक भवो से चला आ रहा था। वह नरक से निकलकर एक अत्यन्त गरीब कुल मे जन्मा था, भूख व दरिद्रता से व्याकुल होकर उसने तापसी-प्रव्रज्या ग्रहण की थी। बहुत उग्र तपस्या करने से जनता मे उसके तप की धाक जम गई थी। राजकुमार पार्श्वनाथ ने देखा- 'तपस्वी पचाग्नि तप रहा है। चारो दिशाओ मे अग्नि जल रही है, और मस्तक पर सूर्य तप रहा है, अग्निकुण्ड में बडे-बडे लक्कड़ जल रहे हैं। उसमें एक सर्प भी जल रहा है। सर्प को देखकर पार्श्वकुमार का हृदय करुणा से द्रवित हो उठा । तापस के इस विवेकशून्य क्रियाकाण्ड को देखकर पार्श्वनाथ ने कहा--तपस्विन् ! यह कैसा अज्ञान तप है ! पचेन्द्रिय जीवों को भस्म कर तुम अपना कल्याण चाहते हो?
तपस्वी- राजकुमार | तुम धर्म के रहस्य को नही समझते । राजपुत्र तो हाथी घोड़ों पर क्रीड़ा करना और युद्ध करना जानते हैं, धर्म के रहस्य को तो हमारे जैसे तपस्वी समझ सकते है । तुम यहाँ से चले जाओ, अभी तो दूध मुहेबच्चे हो । क्या तुम मेरी धूनी मे किसी जीव को जलता बता सकते हो ?
राजकुमार--तपस्वी ! इस बड़े लकड़ में सर्प जल रहा है ।
तपस्वी-तुम्हारा कथन मिथ्या है । तभी राजकुमार ने अपने सेवक को आज्ञा दी, सेवक ने अग्निकुण्ड से उस लकड़ को बाहर निकाला और मावधानी से चीरा तो उस समय तिलमिलाता हुआ सर्प बाहर निकला । वह मरणा