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तीर्थकर काल : तीर्थ स्थापना
आदि से पुनर्जन्म ध्वनित होने से वे दृढ़ निश्चय नहीं कर पा रहे थे । भगवान् ने वेद वाक्यों का सही अर्थ समझाते हुए पुनर्जन्म की सत्ता प्रमाणित की । समाधान होते ही तीन सौ छात्रों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की।
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उसके पश्चात् प्रभास आए । उन्हें आत्मा की मुक्ति के सम्बन्ध में संशय था । और उसे बल मिला था 'जरामयं वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रम् वाक्य से । किन्तु 'द्व े ब्राह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इस वाक्य से आत्मा की बद्ध और मुक्त दोनों अवस्थाओं का प्रतिपादन होता था । जिससे आत्म-निर्वाण के सम्बन्ध में प्रभास शंकाशील थे । भगवान् महावीर ने उन वेद वाक्यों का सही अर्थ समझाया । समाधान होते ही वे भी अपने तीन सौ छात्रों के साथ प्रव्रजित हो गए ।
• तीर्थ स्थापना
इस प्रकार मध्यमपावापुरी के एक ही प्रवचन में ४४११ वेदविज्ञ ब्राह्मणो ने भगवान् महावीर के पास श्रमण धर्म को स्वीकार किया ।
इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वान् भगवान् के प्रमुख शिष्य बने और वे गण धर के महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित हुए ।
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आर्या चन्दनबाला, जिसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है, उस समय Satara में थी । देवगणों को गगन मार्ग से जाते हुए देखकर वह समझ गई कि भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है । उसके हृदय में दीक्षा ग्रहण करने की अत्युत्कट भावना उबुद्ध हुई । देवगण उसके दीक्षा लेने के दृढ़ सकल्प को देखकर वहाँ से भगवान् के समवसरण में लाये । भगवान् को वंदन कर दीक्षा की भावना अभिव्यक्त की । भगवान् ने दीक्षा देकर उसे साध्वी-समुदाय की प्रमुखा बनाई । ३३४
सहस्रों नर-नारियों ने भगवान् के त्याग वैराग्य से छलछलाते हुए प्रवन को सुनकर संयम धर्म स्वीकार किया, और जो उस कंटकाकीर्ण पथ पर