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कल्प सूत्र
बढ़ने में असमर्थ थे उन्होंने श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका के व्रत ग्रहण किये । ये सभी संघ में सम्मिलित हुए।
इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने वैशाख शुक्ला एकादशी के दिन मध्यम पावापुरी के महासेन नामक उद्यान में श्रमण-श्रमणी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ-तीर्थ की संस्थापना की। तीर्थ की स्थापना करने से तीर्थकर नाम की भाव रूप से सार्थकता हुई। ३५
भगवान् ने 'उप्पन्नइ वा विगमेह वा धुवेइ वा' की त्रिपदी के माध्यम से द्वादशाङ्गी के गहन ज्ञान की कुञ्जी इन्द्रभूति प्रभृति गणधरों को सोंपी। गणधरों ने उस त्रिपदी के आधार पर द्वादशाङ्गी की रचना की। सात गणधरों की वाचना पृथक्-पृथक् थी, अकम्पित और अचल म्राता की एक तथा मेतार्य एवं प्रभास गणधर की एक थी। इसलिए गणधर ग्यारह होते भी गण नौ कहलाए।३३६
भगवान् ने वहाँ से फिर राजगृह आदि की ओर विहार किया। - पाश्वनाथ परम्परा का मिलन
भगवान के प्रभावशाली प्रवचनों से प्रभावित होकर भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणोपासक एव श्रमण भी भगवान् महावीर की ओर आकर्षित हुए । उत्तराध्ययन सूत्र मे पाश्र्वापत्य केशीकुमार और गणधर गौतम का बोधप्रद संवाद है। राजगृह में केशीकुमार श्रमण एवं गणधर गौतम का ऐतिहासिक संवाद और फिर उनका पारस्परिक समाधान एवं मिलन वस्तुतः निर्ग्रन्थ परम्परा में एक नया मोड़ था। केशीकुमार पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म के स्थान पर पंचमहावत रूप धर्म को स्वीकार करते हैं। 336
वाणिज्यग्राम में भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी गांगेय अनगार और भगवान महावीर के बीच महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर हुए । भगवान महावीर को सर्वज्ञ सर्वदर्शी समझ संघ में सम्मिलित हुए ।३३८ निर्ग्रन्थ उढक पेढालपुत्र का मौतम के साथ संवाद हुआ और वह भी महावीर के संघ में सम्मिलित हुए। 33'