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गर्भ की स्थिरता पर शोक
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मूल :
तए णं सा तिसला खत्तियाणी हट्टतुट्ठ जाव हियया एवं क्यासिनो खलु मे गब्भे हडे जाव नो गलिए, मे गब्भे पुब्बि नो एयइ इयाणिं एयइ त्ति कटु हठतुठ जाव एवं वा विहरइ ॥१०॥
अर्थ--उसके पश्चात् वह त्रिशला क्षत्रियाणी परम प्रसन्न हुई, तुष्ट हुई। प्रसन्नता से उसका हृदय विकसित हुआ। प्रसन्न होकर वह इस प्रकार सोचने लगी-"निश्चय ही मेरे गर्भ का हरण नहीं हुआ है और न मेरा गर्भ गला ही है। मेरा गर्भ पहले हिलता नहीं था, अब हिलने लगा है।" इस प्रकार सोचकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई, सन्तोष को प्राप्त हुई और अतीव आह्लाद पूर्वक रहने लगी।
-. अभिग्रह मल:
तए णं समणे भगवं महावीरे गब्भत्थे चेव इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ नो खलु मे कप्पइ अम्मापिएहिं जीवंतेहिं मुंडे भवित्ता अगारवासाश्रो अणगारियं पब्बइत्तए ॥६१॥
अर्थ-उसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने गर्भ में रहते ही इस प्रकार अभिग्रह (नियम संकल्प) स्वीकार किया- "जब तक मेरे माता पिता जीवित रहेगे तब तक मैं मुण्डित होकर गृहवास का त्याग कर दीक्षा अंगीकार नही करूंगा।"
विवेचन-श्रमण भगवान महावीर ने सोचा "अभी तो मै गर्भ में हूँ, मां ने मेरा मुह भी नही देखा है तथापि माता का इतना मोह है, तो जन्म के पश्चात् कितना मोह होगा ? माता पिता की विद्यमानता में यदि मैं संयम लूगा तो उन्हें बहुत ही कष्ट होगा, अतः मातृ-स्नेह के वश सातवें महीने में उन्होंने उपर्युक्त प्रतिज्ञा ग्रहण को ।'६६