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कल्प सूत्र
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उठकर वन्दन किया और बोला - "ये गुप्तचर नहीं, अपितु सिद्धार्थ नन्दन महावीर हैं, धर्मचक्रवर्ती हैं ।" परिचय प्राप्त होते ही राजा जितशत्रु ने भगवान् और गोशालक को सत्कार पूर्वक विदा किया । २७७
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लोहार्गला से भगवान् ने पुरिमताल नगर की ओर प्रस्थान किया । नगर के बाहर कुछ समय तक शकटमुख उद्यान में ध्यान किया । 'वग्गुर' श्रावक ने यहाँ आपका सत्कार किया । वहाँ से उन्नाग, गोभूमि को पावन करते हुए राजगृह पधारे । वहाँ चातुर्मासिक तप ग्रहण कर विविध आसनो के साथ ध्यान करते रहे । २७८ ऊंची-नीची और तिरछी तीनों दिशाओं में स्थित पदार्थों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए प्रभु ने वहाँ ध्यान किया, वहीं पर आठवाँ वर्षावास व्यतीत किया। नगर के बाहर चातुर्मासिक तप का पारणा कर विशेष कर्मनिर्जरा करने के लिए पुन. अनार्यभूमि की ओर ( राढ़ देश की ओर) प्रयाण किया। पूर्व की भाँति ही अनार्य प्रदेश मे कष्टों से क्रीड़ा करते हुए कर्मों की घोर निर्जरा की । योग्य आवास न मिलने के कारण वृक्षो के नीचे खण्डहरों में तथा घूमते-घामते वर्षावास पूर्ण किया। छह मास तक अनार्य प्रदेश में विचरण कर पुनः आर्य प्रदेश में पधारे। २०
तिल का प्रश्न : वैश्यायन तापस
आर्य भूमि में प्रवेश कर भगवान् सिद्धार्थपुर से कूर्मग्राम की ओर पधार
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रहे थे । गोशालक भी साथ ही था । पथ में सप्त पुष्पवाले एक तिल के लहलहाते हुए पौधे को देखकर गोशालक ने जिज्ञासा की कि 'भगवन् ! क्या यह पौधा फलयुक्त होगा ?"
समाधान करते हुए भगवान् ने कहा- 'यह पौधा फलवान होगा और सातों ही फूलों के जीव एक फली में उत्पन्न होंगे ।' भगवान् के कथन को मिथ्या करने की दृष्टि से गोशालक ने पीछे रहकर उस पौधे को उखाड़कर एक किनारे फेंक दिया । २८१ संयोगवश उसी समय थोड़ी वृष्टि हुई और वह तिल का पौधा पुनः जड़ जमाकर खड़ा हो गया। वे सात पुष्प भी उक्त प्रकार से तिल की फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए ।