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साधना काल : तिल का प्रदन : बेश्यायन तापस
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भगवान् कर्मग्राम आये । कूर्मग्राम के बाहर वेश्यायन नामक तापस प्राणायामा- प्रव्रज्या स्वीकार कर सूर्यमंडल के सम्मुख दृष्टि केन्द्रित कर दोनों हाथ ऊपर उठाये आतापना ले रहा था । आतप संतप्त होकर जटा से यूकाएँ (जुएँ) पृथ्वी पर गिर रही थीं और वह उन्हें उठा-उठाकर पुनः जटा में रख रहा था । गोशालक ने यह दृश्य देखा तो, कुतूहलवश भगवान् के पास से उठ कर उस तपस्वी के निकट आया और बोला- 'तू कोई तपस्वी है, या जूओं का शय्यातर ? तपस्वी शान्त रहा। इसी बात को गोशालक पुनः पुनः दुहराता रहा । तपस्वी क्रोध में आ गया। वह अपनी आतापना भूमि से सात-आठ पग पीछे गया और जोश में आकर उसने अपनी तपोलब्ध तेजोलब्धि गोशालक को भस्म करने के लिए छोड़ दी । गोशालक मारे डर के भागा, और प्रभु के चरणों छुप गया, दयालु महावीर ने शीतललेश्या से उसको प्रशान्त कर दिया । गोशालक को सुरक्षित खड़ा देखकर तापस सारा रहस्य समझ गया । उसने अपनी तेजोलेश्या का प्रत्यावर्तन किया और विनम्र शब्दों में बोलता रहा"भगवन् ! मैंने आपको जाना। मैंने आपको जान लिया ।" गोशालक ने इस चमत्कारी शक्ति को प्राप्त करने की विधि पूछी। भगवान् महावीर ने उसे तेजोलेश्या की उपलब्धि की विधि बतलाई । २८२
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भगवान् ने कुछ समय के पश्चात् पुनः वहाँ से सिद्धार्थपुर की ओर प्रयाण किया । तिल पौधे के स्थान पर आते ही गोशालक को अतीत की घटना की स्मृति हो आई । उसने कहा - "भगवन् ! आपकी वह भविष्य वाणी मिथ्या हो गई है ।' महावीर ने कहा - 'नहीं, वह अन्य स्थान पर लगा हुआ जो तिल का पौधा है, वही है जिसे तूने उखाड कर फेंका था ।' गोशालक श्रद्धाहीन था, वह तिल के पौधे के पास गया और तिल की फली को तोड़कर देखा तो सात ही तिल निकले । प्रस्तुत घटना से भी गोशालक नियतिवाद की ओर आकृष्ट हुआ । उसका यह विश्वास सुदृढ़ बन गया कि 'सभी जीव मर कर पुनः अपनी ही योनि में उत्पन्न होते हैं । २८
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वहा से गोशालक ने भगवान् का साथ छोड़ दिया। वह श्रावस्ती गया, और 'हालाहला' नाम की कु भारिन की भाण्डशाला में ठहर कर महावीर द्वारा