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१८४ इव दुद्धरिसे, मंदरो इव अप्पकंपे, सागरो इव गंभीरे; चंदो इव सोमलेसे, सूरो इव दित्ततेए जच्चकणगं व जायसवे, वसुंधरा इव सव्वफासविसहे, सुहृय हुयासणो इव तेयसा जलते ॥११७॥
अर्थ-उसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर अनगार हुए। ईर्यासमिति भाषा समिति, एषणा समिति, आदानभाँडमात्रनिक्षेपणा समिति, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिस्थापनिका समिति, मन समिति, वचन समिति, काय समिति, मनगुप्ति, वतन गुप्ति, काय गुप्ति, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मचारी, क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित हुए । शान्त, उपशान्त, और सभी प्रकार के संताप से मुक्त हुए । वे आश्रव रहित, ममता रहित, परिग्रह रहित, अकिंचन निर्ग्रन्थ हुए । कांस्य पात्र की तरह निर्लेप हुए। जैसे शख पर किसी भी प्रकार के रंग का असर नहीं होता वैसे ही भगवान् पर राग-द्वेष के रंग का असर नहीं होता था। जीव की तरह अप्रतिहत गति वाले हुए। गगन की तरह आलंबन रहित हुए, वायु की तरह अप्रतिबद्ध विहारी हुए । शरदऋतु के पानी की तरह उनका हृदय निर्मल हुआ। कमलपत्र की तरह निर्लेप हुए । कूर्म की तरह गुप्तेन्द्रिय हुए। महावराह के मुंह पर जैसे एक ही सींग होता है, वैसे ही भगवान् एकाकी हुए । पक्षी की तरह विप्रमुक्त हुए । भारंडपक्षी की तरह अप्रमत्त हुए, हाथी की तरह शूर हुए, बैल की तरह पराक्रमी हुए, सिंह की तरह विजेता हुए, सुमेरु पर्वत की तरह अडिग, सुस्थिर हुए, सागर की तरह गंभीर, चन्द्र की तरह सौम्य, सूर्य को तरह तेजस्वी, स्वर्ण की तरह कान्तिमान पृथ्वी की तरह क्षमाशील और अग्नि की तरह जाज्वल्यमान तेजस्वी हुए । मल:
एतेसिं पदाणं इमातो दुन्नि संघयणगाहाओःकसे संखे जीवे, गगणे वायू य सरयसलिले य । पुक्खरपत्ते कुम्मे, विहगे खग्गे य भारंडे ॥१॥ कुंजर वसभे सीहे, णगराया चेव सागरमखोभे । चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा चेव हूयवहे ॥२॥