________________
१८४ वे चिन्तन कर रहे थे कि त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में हंसते हुए मैंने जो शय्यापालक के कानों में गर्म शीशा उडेलवाया था उसी घोर कर्म का यह प्रतिफल मुझे प्राप्त हुआ है।
वहाँ से विहार कर भगवान् मध्यमपावा पधारे। भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए सिद्धार्थ श्रेष्ठी के घर पर पहुँचे। उस समय सिद्धार्थ श्रेष्ठी वैद्य-प्रवर खरक से वार्तालाप कर रहा था । प्रतिभा सम्पन्न वैद्य ने सर्व लक्षण सम्पन्न महावीर के सुन्दर व सुडौल तन को देखकर कहा कि इनके "शरीर में शल्य है । उसे निकालना हमारा कर्तव्य है।" वैद्य और श्रेष्ठो के द्वारा अभ्यर्थना करने पर भी भगवान् वहाँ रुके नहीं। वे वहाँ से चल दिये और गाँव के बाहर आकर ध्यानस्थ हो गए।
खरक वैद्य और श्रेष्ठी औषधि आदि सामग्री लेकर भगवान् को देखतेदेखते उद्यान में गये। वहाँ भगवान ध्यानस्थ थे। उन्होंने कानों में से शलाकाएँ निकालने के पूर्व भगवान् के शरीर का तेल से मर्दन किया और सन्डासी से पकड़कर शलाकाएँ निकालीं। कानों से रक्त की धाराएँ प्रवाहित हो गई। कहा जाता है कि उस अतीव भयंकर वेदना से भगवान् के मुह से एक चीत्कार निकल पड़ी जिससे सारा उद्यान व देवकुल संभ्रमित हो गया। वैद्य ने शीघ्र ही संरोहण औषधि से रक्त को बन्द कर दिया और घाव पर लगा दी। प्रभु को नमन व क्षमायाचना कर वैद्य और श्रेष्ठी अपने स्थान पर चले आये । ३१
इस प्रकार भगवान् को साधना काल में अनेक रोम-हर्षक कष्टों का सामना करना पड़ा। ताड़ना, तर्जना, अपमान और उत्पीडन ने प्रायः पद-पद पर प्रभु की कठोर परीक्षा ली। उन सभी उपसर्गों को तीन भागों में विभक्त करें तो जघन्य उपसर्गों में कूटपूतना का उपसर्ग महान् था। मध्यम उपसर्गों में संगमक का कालचक्र उपसर्ग विशिष्ट था और उत्कृष्ट उपसर्गों में कर्णों से शलाकाए निकालना अत्यन्त उत्कृष्ट था । १६ आश्चर्य की बात है कि भगवान् का पहला उपसर्ग भी कर्मार ग्राम में एक ग्वाले से प्रारम्भ हुआ था, यह अन्तिम उपसर्ग भी एक ग्वाले के द्वारा उपस्थित किया गया।