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अमिनियम
१४७ भगवं लोगनाहा! पवत्ते हिधम्मतित्थं हियसुहनिस्सेयसकरं सव्वलोए सव्वजीवाणं भविस्सई त्ति कटु जय जय सद्द पउंज्जति ॥११॥
___ अर्थ-श्रमण भगवान महावीर दक्ष थे। उनकी प्रतिज्ञा भी दक्ष (विवेक युक्त) थी। वे अत्यन्त रूपवान् थे, आलीन (कूर्म की तरह इन्द्रियों को गोपन करने वाले) थे । भद्र, विनीत और ज्ञात (सुप्रसिद्ध) थे अथवा ज्ञात वश के थे। ज्ञातृवंश के पुत्र थे, अर्थात् ज्ञातृवंशीय राजा सिद्धार्थ के पुत्र थे, ज्ञातृवंश के कुल मे चन्द्र के समान थे, विदेह थे अर्थात उनका देह दूसरों के देह की अपेक्षा विलक्षण था। विदेहदिन्न-या विदेहदिन्ना-त्रिशला माता के पुत्र थे । विदेहजच्च अर्थात् त्रिशला माता के शरीर से जन्म ग्रहण किया हुआ था । ८५ अथवा विदेहवासियो मे श्रेष्ठ (विदेह जात्य) थे,'विदेह सुकुमाल' थे अर्थात् वे 'अत्यन्त मुकुमाल थे । तीस वर्ष तक गृहस्थाश्रम मे रहकर अपने माता पिता के स्वर्गस्थ होने पर अपने से ज्येष्ठ पुरुषों की अनुजा प्राप्त कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर तथा लोकान्तिक जीतकल्पी देवों ने उम प्रकार की इष्ट, मनोहर, प्रिय, मनोज्ञ, मन को आह्लाद करने वाली उदार, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मगलरूप, परिमित, मधुर-शोभायुक्त, हृदय को रुचिकर लगने वाली, हृदय को प्रसन्न करने वाली गंभीर, पुनरुक्ति आदि से रहित वाणी से भगवान् को निरन्तर अभिनन्दन अर्पित करके भगवान् की स्तुति करते हुए वे देव इस प्रकार बोले-हे नन्द ! (आनन्द रूप) तुम्हारी जय हो, विजय हो, हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, विजय हो, भद्र हो ! हे उत्तमोत्तम क्षत्रिय ! हे क्षत्रियनरपुङ्गव ! तुम्हारी जय हो, विजय हो, हे भगवन् ! लोकनाथ | बोध प्राप्त करो ! सम्पूर्ण जगत में सभी जीवो का हित, सुख और नि श्रेयस् करने वाला धर्मतीर्थ, धर्मचक्र प्रवर्तन करो ! यह धर्मचक्र सम्पूर्ण जगत् मे सभी जीवों के हितकर, सुखकर और निःश्रेयस को करने वाला होगा। इस प्रकार कहकर वे देव 'जय-जय' का नाद करने लगते है।
विवेचन-अट्ठाईस वर्ष की उम्र में माता-पिता के स्वर्गस्थ होने पर भगवान से परिजन और प्रजा का प्रेम भरा आग्रह रहा कि आप राज्य सिंहासन