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१९२ " मैं समभाव को स्वीकार करता हूँ, सर्व सावद्ययोग का त्याग करता । आज से जीवन पर्यन्त मानसिक, वाचिक और कायिक सावद्य योगमय आचरण न मैं करूँगा, न कराऊँगा और न करते हुए का अनुमोदन करूंगा । पूर्व-कृत सावद्य आचरण से निवृत्त होता हूँ उसकी गर्हा करता हूँ, और अपने पूर्वकालिक सावद्य जीवन का त्याग करता हूँ ।
कल्प भ
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उक्त प्रतिज्ञा पूर्वक सर्वविरति चारित्र को स्वीकार करते हो भगवान् को मनः पर्यवज्ञान की उपलब्धि हुई । उस समय भगवान ने यह दृढ़ निश्चय किया कि 'जब तक मुझे केवल ज्ञान प्राप्त नही होगा तब तक मै इस शरीर की सेवा-शुश्रूषा व सार-संभाल नही करूँगा । देव मानव और तिर्यच सम्बन्धी जो भी उपसर्ग आएँगे उन्हें समभाव से सहन करूँगा और मन में किमी भी प्रकार का किञ्चित् भी उद्वेग नही आने दूँगा । १९४
भगवान् श्री महावीर ने जिस समय दीक्षा ग्रहण की, उनके साथ दूसरा कोई भी दीक्षित नही हुआ । जबकि पूर्ववर्ती तीर्थंकरो के साथ अनेक पुरुष दीक्षित हुए। जैसे कि भगवान् ऋषभदेव ने चार हजार पुरुषो के साथ, भगवती मल्ली और भगवान् पार्श्वनाथ ने तीन-तीन सौ पुरुषों के साथ, भगवान् वासुपूज्य ने छह सौ पुरुषों के साथ और अवशेष उन्नीस तीर्थकरो ने हजारहजार पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहण की थी ।'
साधना काल
मूल
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समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं जाव चीवरधारी होत्या. तेण परं अचेले पाणिपडिग्गहए ।। ११५ ॥
अर्थ - श्रमण भगवान महावीर एक वर्ष से अधिक एक महीने तक यावत् चीवरधारी अर्थात् वस्त्र को धारण करने वाले थे, उसके पश्चात् अचेल -- वस्त्र रहित हुए, तथा पाणि- पात्र हुए ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में एवं आचारांग के मूल में दरिद्र ब्राह्मण को वस्त्र देने का उल्लेख नहीं है । परन्तु आवश्यकचूर्ण, नियुक्ति, वृत्ति, चउप्प