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साधना काल : लाढ़ प्रदेश में
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में ही रात्रिवास करते । जब वे किसी गाँव में जाते तो गाँव के सन्निकट पहुँचते ही गाँव के लोग बाहर निकलकर उन्हें मारने-पीटने लगते और अन्य गाँव जाने को कहते । वे अनार्य लोग भगवान् पर दण्ड, मुष्ठि, भाला, पत्थर व ढेलों से प्रहार करते और फिर प्रसन्न होकर चिल्लाते । २६०
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वहाँ के क्रूर मनुष्यों ने भगवान् के सुन्दर शरीर को नौंच डाला, उन पर विविध प्रकार के प्रहार किये। भयंकर परीषह उनके लिए उपस्थित किये। उन पर धूल फेंकी। वे भगवान् को ऊपर उछाल-उछाल कर गेंद की तरह पटकते । आसन पर से धकेल देते, तथापि भगवान शरीर के ममत्व से रहित होकर बिना किसी प्रकार की इच्छा व आकाक्षा के संयम-साधना में स्थिर रहकर कष्टों को शान्ति से सहन करते । २६७
" जैसे कवच पहने हुए शूरवीर का शरीर युद्ध में अक्षत रहता है, वैसे ही अचेल भगवान् महावीर ने अत्यन्त कठोर कष्टों को सहते हुए भी अपने सयम को अक्षत रखा । २६८
इस प्रकार समभाव पूर्वक भयंकर उपसर्गों को सहनकर भगवान् ने बहुत कर्मों की निर्जरा कर डाली। वे पुन आर्य प्रदेश की ओर कदम बढ़ा रहे थे कि पूर्णकलश सीमा प्रान्त पर दो तस्कर मिले। वे अनार्य प्रदेश में चोरी करने जा रहे थे । भगवान् को सामने से आते देख उन्होंने अपशकुन समझा । वे तीक्ष्ण शस्त्र लेकर भगवान् को मारने के लिए लपके। उस समय स्वयं इन्द्र ने प्रकट होकर तस्करों का निवारण किया । २६९
भगवान् आर्य प्रदेश के मलय देश मे विहार करने लगे और उस वर्ष मलय की राजधानी भद्दिला नगरी में अपना पाँचवा चातुर्मास किया, चातुर्मासिक तप और विविध आसनों के साथ ध्यान साधना करते हुए वर्षावास व्यतीत किया । २७०
वर्षावास पूर्ण होने पर भद्दिल नगरी के बाहर चातुर्मासिक तप का पारणा कर 'कदली समागम' "जम्बू सण्ड', होकर 'तंबाय सन्निवेश' पधारे।