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कल्प सूत्र
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हुआ । भगवान् ने भी पूर्व के अभ्यासवश उनसे मिलने हेतु दोनों बाहे पसारी और उनके मधुर आग्रह को सम्मान देकर वे एक दिन वहाँ विराजे । प्रस्थान करते समय कुलपति ने निवेदन किया- " कुमार वर ! प्रस्तुत आश्रम आपका ही है। आप इसे दूसरे का न समझे । कुछ समय यहाँ पर स्थिति रखें व एकान्त शान्त स्थान में वर्षावास की इच्छा हो तो यहाँ अवश्य पधारें। मैं अनुग्रहीत होऊगा । २१४ भगवान् ने वहाँ से विहार किया, सन्निकटस्थ क्षेत्रों में परिभ्रमण कर पुनः वर्षावास हेतु वहाँ पधारे । कुलपति ने एक पर्णकुटी प्रदान की । भगवान् वहाँ हिमालय की तरह अचल, निष्कंप, ध्यान-योग में स्थिर हो गये । वर्षा विलम्ब से होने के कारण अभी तक घास नहीं उगी थी, अतः क्षुधा से पीडित गायें आदि पशु पर्णकुटियों का घास खाने को मुँह मारती थी, अन्य तापसगण उन्हें भगाकर कुटियों की रक्षा करते पर, महावीर तो ध्यान में तल्लीन थे । वे गायों को रोकते भी कैसे ? तापसों ने कुलपति से कहा- तुम्हारा यह मेहमान कंसा आलसी है, अपनी कुटिया की भी रक्षा नहीं कर सकता ? दूसरी कुटी कौन छाकर देगा ?२१५ कुलपति ने भी महावीर से निवेदन कियाकुमारवर | पक्षिगण भी अपने घोंसले की रक्षा करते हैं, पर आप राजकुमार होकर भी इतनी उपेक्षा क्यो रखते हैं ? दुष्टों को दण्ड देना आपका कर्तव्य है । फिर कर्तव्य विमुख क्यों हो रहे है ?२१६ इस प्रकार संकेत कर कुलपति अपने स्थान चला गया । महावीर ने विचार किया मेरे कारण आश्रमस्थ व्यक्तियों का मानस व्यथित हो रहा है अतः मेरा यहाँ रहना उचित नहीं है ।" वर्षावास के पन्द्रह दिन व्यतीत होने पर भी उन्होंने वहाँ से विहार किया । २१७ उस समय भगवान् महावीर ने पाँच प्रतिज्ञाएँ ग्रहण की ।
(१) अप्रीतिकारक स्थान में नहीं रहूँगा । (२) सदा ध्यानस्थ रहूँगा ।
(३) मौन रखूँगा । (४) हाथ में भोजन करूँगा ।
(५) गृहस्थों का विनय नहीं करूँगा । स्मरण रखना चाहिए कि आचारांग १९
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के अनुसार महावीर ने कभी