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वर्ष परिपालना
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सम्मान पूर्वक पूर्ण किया । दोहदों का तनिकमात्र भी अपमान ( उपेक्षा) नहीं किया । उसके मनोवांच्छित दोहद पूर्ण होने से हृदय शान्त हो गया । अब उसे दोहद उत्पन्न नहीं होते, वह सुखपूर्वक सहारा लेकर बैठती है, सोती है, खड़ी रहती है, आसन पर बैठती है, शय्या पर सोती है और सुख पूर्वक गर्भ को धारण करती है ।
विवेचन - भारतीय आयुर्वेद साहित्य में जो जैन दृष्टि से प्राणावाय पूर्व का ही एक अङ्ग है, गर्भवती माता का आहार, विहार और चर्या कैसी होनी चाहिए इस पर गहराई से विचार किया गया है। यहां पर हम विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही उसका सारांश सूचित कर रहे हैं ।
गर्भवती माता को किस ऋतु में कौन-सा पदार्थ अधिक लाभप्रद होता है ? इस पर चर्चा करते हुए बताया है कि वर्षा ऋतु में नमक, शरद् ऋतु में पानी, हेमन्त ऋतु में गोदुग्ध, शिशिरऋतु में आम्ल रस, वसन्त ऋतु में घृत और ग्रीष्मऋतु में गुड़ का सेवन हितकारी है । '
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वाग्भट्ट ने कहा है- 'यदि गर्भवती माता वात- प्रधान आहार करती है तो गर्भस्थ बालक कुब्ज, अंध, मूर्ख और वामन होता है। यदि पित्त प्रधान आहार करती है तो गर्भस्थ बालक के सिर मे टाट, व शरीर पीतवर्ण वाला होता है । यदि कफप्रधान आहार करती है तो गर्भस्थ बालक श्वेत कुष्ठी होता है ।
'अत्यन्त उष्ण आहार करने से गर्भस्थ बालक का बल नष्ट होता है । अत्यन्त शीत आहार करने से गर्भस्थ बालक को वायु प्रकोप होता है । अत्यन्त नमक प्रधान आहार करने से गर्भस्थ बालक के नेत्र नष्ट होते हैं । अत्यन्त घृत प्रधान स्निग्ध आहार करने से पाचनक्रिया विकृत होती है ।'
सुश्रुत में कहा है- 'यदि गर्भवती महिला दिन में सोती है, तो उसकी सन्तान आलसी व निद्रालु होती है । यदि नेत्रों में अञ्जन आँजती है तो संतान अंधी होती है । यदि वह रोती है तो सन्तान की दृष्टि विकृत होती है । यदि वह अधिक स्नान और विलेपन करती है तो संतान दुराचारिणी होती है । शरीर पर तेल आदि का मर्दन करती है तो संतान कुष्ठ रोगी होती है। बार