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बाल्यकाल एवं यौवन
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वर्धमान उसकी यह करतूत देखकर के भी घबराये नही। वे अविचलित रहे
और साहस के साथ उसकी पीठ पर ऐसा मुष्ठि प्रहार किया कि देवता वेदना से चीख उठा । शीघ्र ही विकराल पिशाच का रूप सिमट कर नन्हा-सा किशोर बन गया। उसका गर्व खण्डित हो गया। उसने बालक वर्धमान के पराक्रम का लोहा माना और वन्दन करते हुए कहा-"प्रभो ! आप में इन्द्र के द्वारा प्रशंसित व वणित शक्ति से भी अधिक शक्ति है, आप वीर ही नहीं अपितु महावीर हैं।'७६ मै परीक्षक बनकर आया था, मगर प्रशंसक बनकर जा
महावीर बाल्यकाल से ही विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे । उनकी वीरता, धीरता, योग्यता और ज्ञान-गरिमा अपूर्व तथा अनूठी थी। सागर की तरह गंभीर प्रकृति होने के कारण उनकी कुशाग्र बुद्धि, एव चमत्कारपूर्ण प्रतिभा का परिज्ञान माता पिता को भी न हो सका । आठ वर्ष पूर्ण होने पर उन्होंने बालक महावीर को लेखशाला में विद्याध्ययन के लिए भेजा।
महावीर के बुद्धि वैभव तथा सहज प्रतिभा का परिचय विद्यागुरु तथा जनता को कराने की दृष्टि से देवराज इन्द्र वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाकर लेखशाला मे आये। उसने बालक महावीर से व्याकरण सम्बन्धी अनेक जटिल जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की। उनका तर्क पूर्ण और अस्खलित उत्तर सुनकर अध्यापक अवाक् और हतप्रभ रह गया। उसने भी अपने मन की कुछ पुरानी शंकाए निवेदन की, भगवान से समाधान पाकर वह आश्चर्य मुद्रा में महावीर को देखने लगा । तब उस वृद्ध ब्राह्मण ने कहा-'पण्डित ! आप इन्हे साधारण बालक न ममझे । यह विद्या का सागर और ज्ञान का निधि है । सकल शास्त्र में पारंगत है, यह महान आत्मा भविष्य में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर ससार का उद्धारसमुद्धार करेगा। बालक महावीर के उत्तरों को सुनकर ब्राह्मण ने उसे 'ऐन्द्र व्याकरण' के रूप में संग्रथित किया । ७७ उसी समय इन्द्र ने अपना अमली रूप प्रकट किया और भगवान् को वन्दन कर अन्तर्धान हो गया।
__ महावीर की नव नव उन्मेषशालिनी प्रतिभा से माता-पिता परिजनपौरजन सभी चकित हुए, सभी का मन अत्यन्त प्रमुदित हो उठा ।