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गान महोत्सव
१३३ को और माता त्रिशला को तीन बार प्रदक्षिणा कर नमस्कार किया। मां को अवस्वापिनी निद्रा देकर और भगवान का प्रतिबिम्ब वहाँ रखकर भगवान् को मेरुशिखर पर ले गये। स्नात्राभिषेक करने के लिए जब सब देव जलकलश लेकर खड़े हुए तो सौधर्मेन्द्र के मानस में शंका हुई कि यह नवजात बालक इतने जल प्रवाह को कैसे सहन करेगा? अवधिज्ञान से इन्द्र की शंका को जानकर भगवान् ने बाएँ पांव के अंगूठे से मेरु पर्वत को दबाया जिससे सम्पूर्ण पर्वत कम्पायमान हो गया ।'७५ इन्द्र को प्रथम क्रोध आया, किंतु जब इसे नवजात बालक रूप में अनन्तशक्ति सपन्न भगवान् का ही कृत्य समझा तो, उसे भगवान् की अनन्त शक्ति का परिज्ञान हुआ, उसने क्षमा याचना की। जन्मोत्सव मनाने के पश्चात् पुनः इन्द्र ने भगवान को माता के पास रख दिया। एवं नन्दीश्वर द्वीप में अष्टान्हिक महोत्सव कर स्वस्थान गये ।
मूल :
जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए तं रयणिं च णं बहवे वेसमणकुंडधारिणो तिरियजंभगा देवा सिद्धत्थरायभवणंसि हिरन्नवासं च सुवन्नवासंच रयणवासं च वयरवासं च वत्थवासं च आहरणवासं च पत्तवासं च पुष्पवासं च फलवासं च बीयवासं च मल्लवासं च गंधवासं च वण्णवासं च चुण्णवासं च वसुहारवासं च वासिं सु ॥६५॥
अर्थ-जिस रात्रि को श्रमण भगवान् महावीर ने जन्म ग्रहण किया उस रात्रि में कुबेर की आज्ञा में रहे हुए, तिर्यक् लोक में रहने वाले अनेक जृम्भिक देवों ने सिद्धार्थ राजा के भवन में चांदी की, स्वर्ण की, रत्नों की, वज रत्नों की, वस्त्रों की, आभूषणों की, (नागर) पत्रों की, पुष्पों की, फलों की, बीजों की, मालाओ की, सुगन्धित पदार्थों की, विविध प्रकार के रंगों की, सुगन्धित चूर्णों की और स्वर्ण मुद्राओं की वृष्टि की।
विवेचन-त्रिशला रानी ने जब पुत्ररत्न को जन्म दिया तब सर्वप्रथम प्रियंवदा नाम की दासी ने राजा सिद्धार्थ के पास जाकर पुत्र जन्म की शुभ