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कल्पसूत्र
अतुरियं अचवलं असंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव सते भवणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुपविट्ठा ॥ ८३॥
अर्थ - स्वप्नों के अर्थ को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करने के पश्चात् सिद्धार्थ राजा की आज्ञा पाकर वह विविध मणि-रत्नों की रचना से चमचमाते हुए भद्रासन से खड़ी होती है। खड़ी होकर शीघ्रता रहित, चपलता रहित, गरहित, अविलम्ब राजहंसी जैसी गति से चलकर जहाँ अपना भवन है, वहा आकर अपने भवन में प्रविष्ट हुई ।
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मूल
जप्पभिई च णं समणे भगवं महावीरे तं नायकुलं साहरिए तप्पभिरं च णं बहवे वेसम णकुडधारिणो तिरियजंभगा देवा सक्कवयणेणं से जाई इमाई पुरापोराणाई महानिहाणाइं भवंति तं जहा - पहीण सामियाइं पहीणसेउयाइं पहीणगोत्तागाराई उच्छन्नसामियाइं उच्छन्नसेउकाई उच्छन्नगोत्तागाराई गामाऽऽगरनगरखेड कव्वडमडंबदोण मुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु सिंघाडएस वा तिरसु वा चउक्केसु वा चच्चरेसु वा चउम्मुहेसु वा महापहेसु वा गामट्टासु वा नगरट्ठाणेसु वा गामनिद्धमणेसु वा नगरनिद्धमणेस वा आवणेसु वा देवकुलेसु वा सभासु वा पवासु वा आरामेसु वा उज्जाणेसु वा वणेसु वा वणसंडेसु वा सुसाणसुन्नागारगिरिकंदरसंतिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसु वा मन्त्रिक्खित्ताडं चिट्ठति नाइं सिद्धत्थरायभवसि साहरंति || ४ ||
अर्थ-जब से श्रमण भगवान् महावीर ज्ञातकुल में संहरित हुए तब से वैश्रमण ( कुबेर) के अधीनस्थ तिर्यक् लोक में निवास करने वाले, बहुत से जृम्भकदेव इन्द्र की आज्ञा से जो अत्यन्त प्राचीन महानिधान थे उन्हें लाकर