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निशाला का स्वप्नान
मूल:
सिहिं च सा विउलुज्जलपिंगलमहुघयपरिसिच्चमाणनि- . मधगधगाइयजलंतजालुज्जलाभिरामं तरतमजोगेहिं जालपयरेहि अण्णमण्णमिव अणुपइण्णं पेच्छइ जालुज्जलणग अंबरं व कथइपयंतं अइवेगचंचल, सिहि । १४ ॥४७॥ ___अर्थ - उसके पश्चात् त्रिशला माता स्वप्न मे निषूम अग्नि देखती है । उस अग्नि की शिखाएं ऊपर की ओर उठ रही थी। वह उज्ज्वल घृत और पीत मधु से परिसिंचित होने के कारण निर्धूम देदीप्यमान उज्ज्वल ज्वालाओं से मनोहर थीं। वे ज्वालाएं एक दूसरे से मिली हुई प्रतीत होती थीं। उनमें कुछ ज्वालाएँ छोटी थी और कुछ ज्वालाएँ बड़ी थीं, वे इस प्रकार ज्ञात हो रही थी कि मानो आकाश को पकड़ रही हैं। वे ज्वालाएँ अतिशय वेग के कारण अत्यधिक चंचल थीं। इस प्रकार चौदहवें स्वप्न में त्रिशला माता निर्धूम प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा देखती है।
मल:
एमेते एयारिसे सुभे सोमे पियदसणे सुरूवे सुविणे दळूण मयणमज्झे पडिबुद्धा अरविंदलोयणा हरिसपुलइयंगी।
एए चोइस सुमिणे सव्वा पासेइ तित्थयरमाया। जं रयणिं वक्कमई, कुच्छिसि महायसो अरहा। १॥४८॥
अर्थ-इस प्रकार के इन शुभ, सौम्य प्रियदर्शन एवं सुरूप स्वप्नों को निहारकर अरविन्द के समान विकसित नयन वाली माता त्रिशला के शरीर के रोम-रोम प्रसन्नता से पुलकित हो गए । वह अपनी शय्या पर जागृत हुई।
जिस रात्रि को महायशस्वी तीर्थकर माता की कुक्षि में आते हैं, उस रात्रि में प्रत्येक तीर्थकर की माताएं इन चौदह स्वप्नों को देखती हैं ।