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सेर्चा
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मूल :
तर f सा तिसला खत्तियाणी सिद्धत्थेणं रन्ना अव्भणुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि भद्दारुणंसि निसीयह, निसीइत्ता आसत्या वीसत्या सुहासणवरगया सिद्धत्थं खत्तियं ताहिं इठाहिं जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी ॥ ५० ॥
अर्थ-उसके पश्चात् वह त्रिशला क्षत्रियाणी सिद्धार्थ राजा की आज्ञा प्राप्त कर विविध मणि-रत्नों से रचित भद्रासन पर बैठती है । बंठकर चलने के श्रम को दूर कर, क्षोभ रहित होकर सिद्धार्थ क्षत्रिय को इष्ट यावत् हृदय को आह्लादित करने वाली वाणी से संलाप करती - करती वह इस प्रकार बोली:
मूल :
एवं खलु अहं सामी ! अज्ज तंसि तारिसयंसि सर्याणिज्जंसि वन्नओ जाव पडिबुद्धा । तं जहा गयवसह० गाहा । तं एतेसिं सामी ! ओरालाणं चोदनहं महासुमिणाणं के मन कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सह १ ॥ ५१ ॥
अर्थ - इस प्रकार हे स्वामिन् ! मैं आज उस रमणीय शयनीय कक्ष में शय्या पर सोई हुई थी ( जिसका वर्णन पूर्व किया जा चुका है) यावत् प्रतिबुद्ध हुई । वे चौदह महास्वप्न गज, वृषभ, आदि जो थे देखे । हे स्वामिन्! उन उदार चौदह महास्वप्नों का क्या कल्याण रूप फल विशेष होगा ?
मूल :
तणं से सिद्धत्थे राया तिसलाए खत्तियाणीए प्रतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्ते आनंदिए पीइमणे परमसोमणसिए हरिसवसविसप्पमाण हियए धारा हयनीवसुरहिदु सुमचु चुमालइयरोमकूवे ते सुमिणे ओगिण्हति, ते सुमिणं ओगिण्हित्ता ईहं