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अर्थ-तदनन्तर सिद्धार्थक्षत्रिय के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये गये वे स्वप्नलक्षण पाठक हर्षित एवं तुष्ट हुए, यावत् प्रसन्नचित्त हुए। उन्होंने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (कपाल में तिलक आदि) तथा सरसों, दही, अक्षत, दूर्वादि मंगलों से मांगलिक कृत्य (दुष्टस्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित्त रूप कृत्य) किया। १६० राज्य सभा में जाने योग्य शुद्ध मंगलरूप उत्तम वस्त्रों को धारण किया। अल्प (भार) किंतु बहमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, मस्तिष्क पर श्वेतसरसों और और अक्षत आदि मंगल हेतु लगाये, और वे अपने-अपने गृह से निकले। मल :
निग्गच्छित्ता खत्तियकुडग्गामं नगरं मझ मज्भेणं जेणेव सिद्धत्थस्स रन्नो भवणवरवडिंसगपडिदुवारे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता भवणवरवडिसगपडिदुवारे एगयओ मिलंति,एगयओ मिलित्ताजेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सिद्धत्थे खत्तिएतेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करतलपरिग्गहियं जाव कटु सिद्धत्यं खत्तियं जएण विजएणं वद्धाविति ॥६७॥
अर्थ-बाहर निकलकर क्षत्रिय कुण्डग्राम नगर के मध्य मे होते हुए जहां सिद्धार्थराजा के उत्तम भवन का प्रधान प्रवेशद्वार है, वहां आते हैं। वहा
आकरके इकट्ठे होते है । इकट्ठ होकर जहां बाह्य उपस्थापनशाला है और जहां सिद्धार्थ क्षत्रिय है, वहां आते है। वहाँ आकरके हाथ जोड़कर मस्तिष्क पर अंजलि कर 'जय हो, विजय हो' इस प्रकार आशीर्वाद वचनों से बधाते हैं। मूल :
तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा सिद्धत्येणं रन्ना वंदियपूइयसक्कारियसम्माणिया समाणा पत्तेयं पत्तेयं पुवण्णत्थेसु भदासणेसु निसीयंति ॥६॥