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अर्थ-अनन्तर सिद्धार्थराजा ने स्वप्न-लक्षण पाठकों को वन्दन किया, उनकी अर्चना की, सत्कार और सम्मान किया। फिर वे (स्वप्न पाठक) पृथकपृथक पूर्व स्थापित भद्रासनों पर बैठ जाते हैं । मल:
तए णं सिद्धत्थे खत्तिए तिसलं खत्तियाणि जवणियंतरियं ठावेइ, ठावित्ता पुप्फफलपडिपुनहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणलक्खणपाढए एवं वयासि-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज तिसला खत्तियाणी तंसि तारिसगंसि जाव सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमेयारूवे ओराले जाव चोदस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा । तं जहा-गय उसभ० गाहा । तं एतेसिं चोदसण्हं महासुमिणाणं देवाणुप्पिया ! ओरालाणं जाव के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? ॥६॥
अर्थ-तदनन्तर सिद्धार्थ क्षत्रिय त्रिशला क्षत्रियाणी को यवनिका (पर्दे) के पीछे बिठाता है। बैठाकर हाथ में फल-फूल लेकर विशेष विनय के साथ स्वप्न-लक्षण पाठको को इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! निश्चय ही आज त्रिशला क्षत्रियाणी ने तथा प्रकार की उत्तम शय्या पर शयन करते हुए अधंनिद्रावस्था में इस प्रकार के उदार, चौदह महान् स्वप्न देखे, स्वप्न देखकर जागृत हुई । वे स्वप्न हैं--गज, वृषभ आदि । हे देवानुप्रियो ! उन उदार चौदह महास्वप्नों का क्या कल्याणकारी फल विशेष होगा ? --. स्वप्न-फल कथन मल:
तए णं ते सुमिणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिए एयम8 सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियया ते सविणे ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता ईहं अणुपविसंति, ईहं २ ता अन्नमनणं