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FNAI का स्नान
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था और अत्यन्त उज्ज्वल था। चारों ओर प्रवर्धमान पानी से अत्यन्त गहरा था, उसकी लहरें चंचल थीं। वे अधिक उछल रही थीं, जिससे उसका पानी तर गित था। पवन से प्रताड़ित होने पर वह बार-बार शीघ्र तरगित ही नहीं हो रहा था अपितु ऐसा लग रहा था कि तट से टकराकर दौड़ रहा हो। उस समय वे लहरें नृत्य करती हुई-सी और भय-विह्वल हुई-सी अतिशय क्षुब्ध प्रतीत हो रही थीं। वे उद्धत एवं सुहावनी उमियाँ कभी इस प्रकार ज्ञात होती थी मानो अभी-अभी तट को उल्लंघन कर जायेंगी और कभी पुनः लौटती हुई ज्ञात होती थीं। उसमें स्थित विराट मकरमच्छ, तिमिमच्छ, तिमिङ्गलमच्छ, निरुद्ध, तिलतिलय आदि जलचर अपनी पूछ को जब पानी पर फटकारते थे तब उनके चारो ओर कपूर जैसे उज्ज्वल फेन फैल जाते थे। महा नदियों के प्रबल प्रवाह गिरने से उसमें गगावर्त नामक भंवर (चक्र) उत्पन्न होते थे। उन भंवरों में पानी उछलता, पुनः वही गिरता तथा चारों ओर चक्कर लगाता हआ चंचल प्रतीत होता था। ऐसे क्षोर समुद्र को शरद्ऋतु के चन्द्र समान सौम्य मुख वाली त्रिशला माता ने देखा।
मल:
तओ पुणो तरुणसूरमंडलसमप्पभं उत्तमकंचणमहामणिसमूहपवरतेयअट्ठसहस्सदिपंतनभप्पईवं कणगपयरपलंबमाणमुत्तासमुज्जलं जलंतदिव्वदाम ईहामिगउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिनररुरुसरभचमरसंसत्तकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं गंधब्बोपवज्जमाणसंपुण्णघोस निच्चं सजलघणविउलजलहरगज्जियसदाणुणादिणा देवदुदुहिमहारवेणं सयलमविजीवलोयं पपूरयंतं कालागरुपवर कुदुरुकतुरुक्कडझतधूवमघमधितगंधुद्धयाभिरामं निच्चालोयं सेयं सेयप्पभं सुरवराभिरामं पिच्छा सा सातोवभोगं विमाणवरपुंडरीयं । १२॥४५॥
अर्थ-उसके पश्चात् त्रिशलामाता स्वप्न में श्रेष्ठदेव विमान देखती है ।