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गर्भ संहरण : हरिर्णगमेथी को आह्वान
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परिवर्तन करना, और जो उस त्रिशला क्षत्रियाणी का गर्भ है, व उस जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भरूप में स्थापित करना । शक्रेन्द्र ने इस प्रकार विचार किया और विचार करके पदातिसेना के अधिपति हरिणगमेषी १४७ देव को बुलाता है और बुलाकर हरिणगमेषी देव से इस प्रकार आदेश करता है ।
मूल
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एवं खलु देवाणुप्पिया ! न एयं भूयं न एयं भव्वं, न एवं भविस्सं जन्नं अरहंता वा चक्कवट्टी वा, बलदेवा वा, वासुदेवा वा, अंतकुलेसु वा पंत० किविण० दरिद्द ० तुच्छ० भिक्खागकुलेसु वा आयाइंसु वा३ एवं खलु अरहंता वा चक्क० बल० वासुदेवा वा उग्ग कुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइन ० नाय ० खत्तिय ० इक्खाग ० हरिवंसकुले वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेमु विसुद्धजाइकुलवंसेसु आयाई सुवा३ ॥२१॥
अर्थ – हे देवानुप्रिय । इस प्रकार निश्चय ही अतीतकाल में न ऐसा हुआ, न वर्तमान काल मे ऐसा होता है और न भविष्य काल में ऐसा होगा ही कि अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, अन्तकुल, प्रान्तकुल, कृपणकुल, दरिद्र कुल, तुच्छकुल, भिक्षुककुल- आदि मे अतीतकाल मे आये थे, वर्तमान में आते है अथवा भविष्य में आयेगे ही। निश्चय ही इस प्रकार अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वसुदेव उग्रकुल में, भोगकुल मे राजन्यकुल में, ज्ञातृकुल में, क्षत्रियकुल में, इक्ष्वाकुकुल में हरिवंशकुल मे तथाप्रकार के विशुद्ध जाति कुल वशों में अतीतकाल में आये थे, वर्तमान में आते हैं और भविष्य में आयेंगे ।
मूल :
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अस्थि पुण एस भावे लोगच्छेरयभूए अणंताहिं ओसप्पि - णि उस्सप्पिणीहिं विक्कताहिं समुप्पज्जति, नामगोत्तरस वा कम्म