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कल्प न खत्तियाणीए सपरिजणाए ओसोवणिं दलयइ. ओसोवणिं दलयित्ता असुहेपोग्गले अवहरइ, असुहेपोग्गले अवहरित्ता सुहेपोग्गले पक्खिवइ, सुहेपोग्गले पक्खिवइत्ता समणं भगवं महावीरं अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गब्मत्ताए साहरइ । जे वि य णं ते तिसलाए खत्तियाणीए गब्भे तं पि य णं देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छिसि गब्भत्ताए साहरइ, साहरित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥२७॥
अर्थ-इस प्रकार वह (हरिणगमेषी) भगवान के पास में जाने के लिए अपने शरीर को श्रेष्ठ बनाने हेतु सूक्ष्म और शुभ पुद्गलो को ग्रहणकर पुनः दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात करता है । अपने मूल शरीर से पृथक् द्वितीय उत्तर वैक्रिय शरीर बनाता है। बनाकर उस उत्कृष्ट त्वरायुक्त चपल, अत्यन्त तीव्र गतिवाली प्रचण्ड, अत्यन्त बेगवाली प्रचण्ड-पवन-प्रताड़ित धूम्र की तरह तेज वेगवाली, शीघ्र दिव्य देवगति से चलता है। चलकर तिरछे असख्य द्वीप समुद्रों के मध्य में होता हुआ जहाँ जम्बूद्वीप है, जहाँ भारतवर्ष है, जहाँ ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर है, जहाँ पर ऋषभदत्त ब्राह्मण का घर है, जहाँ पर देवानन्दा ब्राह्मणी है, वहां आता है। आकर के श्रमण भगवान महावीर को (गर्भस्थ) देखते ही प्रणाम करता है। प्रणाम करके देवानन्दा ब्राह्मणी को और सब परिजनों को अवस्वापिनी निद्रा (बेसुध करने वाली निद्रा) दिलाता है अर्थात् सुला देता है। अवस्वापिनी निद्रा देकर के अशुभ पुदगलों को दूर हटाता है, दूर हटाकर शुभ पुद्गलों को प्रक्षिप्त करता है। शुभ पद्गलों को प्रक्षिप्त करके 'हे भगवन् । आपकी आज्ञा हो" इस प्रकार कहकर श्रमण भगवान् महावीर को किञ्चित् भी कष्ट न हो, इस तरह अंजलि (दोनो हाथों) में ग्रहण करता है। श्रमण भगवान महावीर को ग्रहण करके जहां क्षत्रियकुण्ड - ग्राम नगर है, जहाँ सिद्धार्थ क्षत्रिय का घर हैं, जहां त्रिशला क्षत्रियाणी हैं, वहाँ आता है । वहां आकर के त्रिशला क्षत्रियाणी को सपरिवार अवस्वापिनी निद्रा दिलाता है। अवस्वापिनी निद्रा में सुलाकर अशुभ व अस्वच्छ