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ग्रहण किये हैं, पर, उन क्षुद्रभवों का नाम निर्देश नहीं है। वहाँ आचार्य "संसारे कियन्तमपि कालमटित्वा"3" अर्थात् कुछ काल पर्यन्त संसार-भ्रमण करके, ऐसा लिखकर आगे बढ़ गये हैं ।
सत्ताईस भवों की परिगणना के भी दो प्रकार ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । आवश्यकनियुक्ति, चूणि, मलयगिरिवृत्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, कल्पसूत्र की टीकाओं और पुरातत्त्ववेत्ता श्री कल्याणविजयजी के मन्तव्यानुसार सत्ताईसवाँ भव देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में जन्म होना है जब कि समवायाङ्ग सूत्र तथा उसकी वृत्ति के अनुसार छब्बीसवाँ भव देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में जन्म ग्रहण करने का है और सत्ताईसवाँ भव त्रिशलारानी के गर्भ में आने का । श्री महावीर के उन भवों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है(१) नयसार
अपरमहाविदेह के महावप्र विजयक्षेत्र की जयन्ती नगरो के शत्रुमर्दन नामक सम्राट थे ।“ प्रस्तुत प्रान्त के पुरप्रतिष्ठान ग्राम में भगवान् महावीर का जीव उस समय नयसार नामक ग्रामचिन्तक बना।३९ सम्राट को नव्य-भव्य प्रासाद हेतु काष्ठ की आवश्यकता हुई।० सम्राट के आदेशानुमार नयमार अनेक गाड़ियों को लेकर अरण्य में पहुँचा। भोजन तैयार करके जीमने को बैठने का विचार कर ही रहा था कि सार्थ (समूह) से परिभ्रष्ट और मार्गविस्मृत, क्षुधा और पिपासा से पीडित तपस्वी मुनि उधर निकल आये। नयसार के पूछने पर उत्तर देते हुए मुनियों ने कहा-"भद्र ! हमने सार्थवाह के साथ प्रस्थान किया था, सार्थवाह ने विश्राम लिया और हम निकटस्थ ग्राम में भिक्षा हेतु गये । पुनः अपने विश्राम स्थल पर गये तो देखा कि-सार्थवाह पूर्व ही प्रस्थान कर गया था, अब हम मार्ग भूलकर जंगल में इधर उधर घूम रहें हैं।" नयसार ने भक्ति-भावना से विभोर होकर वह निर्दोष आहार मुनिजनों को प्रदान किया, मार्ग बताया, मुनियों ने भी उपदेश देकर उसे मोक्ष का मार्ग बतलाया। नयसार सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ.२ और परित-संसारी (अल्पसंसारो) बना।