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कल्प सूत्र
अन्त में बीस वर्ष की ।
प्रारम्भ में सात हाथ की ऊँचाई होती है" और बाद
धीरे धीरे कम होते हुए एक हाथ की रह जाती है । इस आरे में जन्म ग्रहण किया हुआ व्यक्ति मोक्ष नहीं पाता । मानव स्वभाव अमर्यादित व उच्छृङ्खल होता है ।
छट्ट आरे का नाम 'दुषम-दुषम' है । यह भी इक्कीस हजार वर्ष का होता है । इस आरे के प्रारम्भ में मानव की उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष की और अन्तिम समय सोलह वर्ष की होती है । प्रारम्भ में एक हाथ की ऊँचाई और धीरे-धीरे मुण्ड हाथ की । इस आरे में पृथ्वी अङ्गारे के समान तप्त होती है । मानव कुरूप, निर्लज्ज, कपटो और अमर्यादित स्वभाव वाले होते हैं । वे बहत्तर प्रकार के बिलों में निवास करते हैं ।
इस प्रकार अवसर्पिणी काल के छह आरे समाप्त होने पर उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होता है । उसमें दुषम-दुषम, दुषम, दुषम- सुषम, सुषम-दुषम सुषम, और सुषम - सुषम आरे होते हैं । उत्सर्पिणी काल में क्रमश अधिकाधिक सुख आदि की अभिवृद्धि होती है ।
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प्रत्येक कालचक्रार्ध में चौबीस तीर्थकर होते है । भगवान् श्री महावीर के पूर्व तेबीस तीर्थकर हो चुके थे । उनमें से भगवान् श्रीमुनिसुव्रत और नेमिनाथ ये दो तीर्थंकर हरिवंश में उत्पन्न हुए थे और शेष, इक्कीस तीर्थकर काश्यप गोत्रीय (इक्ष्वाकुवंशीय ) थे ।" काश्य का अर्थ इक्षु-रम है, उसका पान करने के कारण भगवान् ऋषभ काश्यप कहलाये। भगवान् ऋषभदेव के गोत्र में उत्पन्न होने से अन्य तीर्थंकर भी काश्यप गोत्रीय कहलाये | 3 काश्य का दूसरा अर्थ क्षत्रियतेज है और उस क्षत्रिय तेज की रक्षा करने वाले को काश्यप कहा है । ३४
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भगवान् श्री महावीर के लिए प्रस्तुत सूत्र में 'पूर्वनिर्दिष्ट ' विशेषण आया है । उसका तात्पर्य भगवान् श्री ऋषभदेव आदि पूर्ववर्ती तेवीस तीर्थंकरों की भविष्यवाणी से है ।