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व्यतीत हो चुके थे और दुषम-सुषम नामक आरा भी प्रायः समाप्त हो गया था, अर्थात् एक कोटाकोटी सागरोपम में बयालीस हजार वर्ष न्यून प्रमाणवाला दुषम सुषम-नामक आरे का बहुभाग व्यतीत हो गया था। केवल पचहत्तर (७५) वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रह गये थे। इससे पूर्व ही इक्ष्वाकु कुल में जन्म ग्रहण किये हुए और काश्यपगोत्रीय इक्कीस तीर्थकर हो गये थे और हरिवंश कुल में जन्म पाये हुए गौतमगोत्र वाले दो तीर्थकर भी हो चुके थे। इस प्रकार तेवीस तीर्थकर हो चुकने पर 'श्रमण भगवान महावीर अन्तिम तीर्थंकर होंगे' इस प्रकार पूर्व-तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट भगवान महावीर माहणकुण्डग्राम नगर में कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी जालन्धर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में, अर्द्धरात्रि के समय, हस्तोत्तरा [ उत्तर-फाल्गुनी] नक्षत्र के योग में, देव सम्बन्धी आहार, भव और शरीर त्याग कर गर्भ रूप में उत्पन्न हुये।
विवेचन-जैनागमों मे बीस कोटाकोटी सागरोपम परिमित समय को काल-चक्र कहा है। उसके दो विभाग हैं, अवसर्पिणी और उत्सपिणी । दस कोटाकोटी सागरोपम परिमित वह ह्रासकाल, जिसमें समस्त पदार्थो के वर्णादि गुणों की क्रमशः हानि होती है, अवसर्पिणी है और दस कोटाकोटी मागरोपम परिमित वह उत्क्रान्ति काल, जिसमें समस्त पदार्थों के वर्णादि गुणों की क्रमशः वृद्धि होती है, उमर्पिणी कहलाता है ।२०
प्रत्येक काल-चक्रार्ध में छह-छह आरे होते हैं । २१ अवसपिणी काल के प्रथम आरे का नाम "सुषम-सुषम" है । यह चार कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण हैं। उस समय हस्त-तल की भांति भूमि सम होती है। पंचवर्ण मणियों के समान सुन्दर तृणादि से युक्त पृथ्वी होती है। यत्र-तत्र उद्दाल, कोद्दाल, मोद्दाल, कृतमाल, नृतमाल, दंतमाल, नागमाल, श्रृंगमाल, शंखमाल और श्वेतमाल वृक्षों की छटादार छाया ही नहीं, अपितु उन वृक्षों में सुगन्धित पुष्प और मधुर फल लगे होते हैं। साथ ही भेरुतालवन, हेरुतालवन, मेरुतालवन, पमयालवन, सालवन, सरलवन, सप्तवर्णवन, पूगफलीवन, खजुरीवन, नारिकेलवन प्रभृति सघनवन२१ भी यत्र तत्र होते हैं। मानव, प्रकृति से सरल, मानस