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"श्रमण जो स्थविरकल्पी हैं, वे श्वेतवस्त्र धारण करते हैं और जिनकल्पी निर्वस्त्र होते हैं, पर, मैं कषाय से कलुषित हूँ अतः उसके प्रतीक स्वरूप काषायवस्त्र धारण करूंगा।'५१
"श्रमण पाप भीरु और बहुत जीवों की घात करने वाले आरम्भ-परिग्रह से मुक्त होते है । सचित्त जल का प्रयोग नहीं करते। पर मैं वैसा नही कर पाता अतः परिमित जल, स्नान और पीने के लिए ग्रहण करूँगा।"५२ ।। , इस प्रकार मरीचि ने अपनी नवीन परिकल्पना से परिव्राजक-परिधान एवं मर्यादा का निर्माण किया । और भगवान् के साथ ही ग्राम, नगर आदि में विचरने लगा । ५४ भगवान् के श्रमणों से मरीचि की पृथक् वेष-भूषा को देख कर जन-जन के मानस में कुतूहल उत्पन्न होता। जिज्ञासु बनकर वे उसके पास पहुँचते ।५५ मरीचि प्रतिबोध देकर उन्हें भगवान् का शिष्य बनाता ।"५६
एक समय सम्राट भरत ने भगवान् श्री ऋषभ देव से जिज्ञासा की-"प्रभो! क्या इस परिषद् में कोई व्यक्ति ऐसा है जो आपके सदृश ही भरत क्षेत्र में तीर्थ कर बनेगा ?"५७ जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान ने कहा- 'स्वाध्याय ध्यान से आत्मा को ध्याता हुआ तुम्हारा पुत्र मरीचि परिव्राजक भविष्य मे वर्धमान (महावीर) नामक अन्तिम तीर्थकर होगा। इससे पूर्व वह पोतनपुर का अधिपति त्रिपृष्ट वासुदेव बनेगा और विदेहक्षेत्र की मूकानगरी मे तुम्हारे जैसा ही प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती बनेगा।८ इस प्रकार तीन विशिष्ट उपाधियों को वह अकेला ही प्राप्त करेगा।" भगवान् की भविष्यवाणी को श्रवण कर सम्राट भरत भगवान् को वन्दन कर मरीचि परिव्राजक के पास पहुँचे और भगवान् की भविष्यवाणी सुनाते हुए बोले-“हे मरीचि [त्रिदण्डी] परिव्राजक! तुम अन्तिम तीर्थंकर बनोगे, अत मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूँ। ५९ साथ ही वासुदेव व चक्रवर्ती भी होओगे।" यह सुनकर मरीचि की हत्तत्री के सुकुमार तार झनझना उठे । “मैं वासुदेव बनूगा, मैं चक्रवर्ती पद प्राप्त करूँगा और तीर्थकर होऊँगा ! • मेरे पिता चक्रवर्ती हैं, मेरे पितामह तीर्थंकर है और मैं अकेला ही तीन पदवियों को धारण करूँगा,' मेरा कुल कितना महान है, कितना उत्तम है ?" यों कहता हुआ मारे खुशी के वह बाँसो उछलने लगा।