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काम सूत्र पारणा के हुए । बीस स्थानकों की आराधना करके तीर्थकर नामकर्म उपार्जित किया और अन्त में मासिक संलेखना करके आयु पूर्ण किया। (२५) प्राणत देवलोक
वहाँ से आयु पूर्ण होने पर वह प्राणत देवलोक के पुष्पोत्तरावतंसक विमान में बीस सागर की स्थिति वाले देव हुए । (२६) देवानन्दा के गर्भ में
स्वर्ग से च्यवन कर वह ब्राह्मण कुण्ड-ग्राम में कोडालसगोत्रीय सोमिल नामक ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा के गर्भ में पुत्र रूप में उत्पन्न हुए ।“ मरीचि के भव में जाति व कुल की श्रेष्ठता के दर्प के सर्प ने जो डसा था, उसका विष अभी तक उतरा नहीं था, उसी के फलस्वरूप यहाँ देवानन्दा के गर्भ में आना पड़ा । और बयासी रात्रि तक उस गर्भ में रहें। (२७) वर्धमान महावीर
तिरासीवीं रात्रि को शक्रेन्द्र की आज्ञा से हरिणगमेषी देव ने उनको सिद्धार्थ राजा की रानी त्रिशला क्षत्रियाणी के उदर में प्रस्थापित किया और वहीं जन्म लेकर वर्धमान महावीर के नाम से प्रसिद्ध हुए । - गर्भ संहरण
उपर्युक्त सत्ताईस भवों के निरूपण का सारांश यह है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव ने अनेक भवों पूर्व मरीचि तापस को लक्ष्य करके जो कहा था-'यह अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगा।' वही मरीचि का जीव छब्बीसवें भव में देवा नन्दा के गर्भ में आया और वहाँ से संहरित होकर त्रिशला रानी के गर्भ से वर्धमान के रूप में अवतरित हुआ।
मूल
समणे भयवं महावीरे तिण्णाणोवगए आवि होत्था-चईस्सामि त्ति जाणइ, चयमाणे न जाणइ, चुए मित्ति जाणइ ॥३॥