________________
६६
कल्पसूत्र
और शोभा रहित चतुर्दशी को जन्म लेने वाला, हीन पुण्य कौन है ? मैं इसकी शोभा को नष्ट करदू । पर मुझमें इतनी शक्ति कहा है?' वह असुरराज सुसुमारपुर नगर के निकटवर्ती उपवन में अशोक वृक्ष के नीचे जहाँ भगवान महावीर छद्मस्थावस्था के बारहबे वर्ष में ध्यानस्थ खड़े थे, वहाँ आया। उसने भगवान् महावीर की शरण ग्रहणकर शक्रेन्द्र और उनके देवोंको त्रास देनेके लिए विराट् एवं विद्रूप का विकुर्वणा की और सीधा सुधर्मासभा के द्वार पर पहुँचकर डराने धमकाने लगा । शकेन्द्र ने भी कोप करके अपना वज्रायुध उसकी तरफ फेंका। आग की चिनगारियाँ उगलते हुए वज्र को देखकर चमरेन्द्र जिस मार्ग से आया था उसी मार्ग से पुन: लौट गया । शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा तो पता चला कि यह श्रमण भगवान् महावीर की शरण लेकर यहाँ आया है और पुनः वही भागा जा रहा है | कही यह वज्र भगवान् महावीर को कष्ट न दे ! तदर्थ वह शीघ्र ही उसे लेने के लिए दौड़ा । चमरेन्द्र ने अपना सूक्ष्म रूप बनाया और महावीर के चरणारविन्दों में आकर छिप गया । वज्र महावीर के निकट तक पहुँचने से पूर्व ही इन्द्र ने वज्र को पकड़ लिया और चमरेन्द्र को महावीर का शरणागत होने से क्षमा कर दिया । अमुरराज सौधर्मसभा में कभी जाते नही है किन्तु अनन्तकाल के पश्चात् वे अरिहंत की शरण लेकर गये, यह भी एक आश्चर्य है ।
| ४१
(e) उत्कृष्ट अवगाहना के एक सौ आठ सिद्ध - भगवान् श्री ऋषभदेव व उनके निन्यानवें पुत्र ( भरत को छोड़कर) और भरत के आठ पुत्र इस प्रकार पांच सौ धनुष्य की उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक सौ आठ सिद्ध एक ही समय में हुए । उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक साथ दो सिद्ध होते हैं, एक सौ आठ सिद्ध एक साथ नही होते, ऐसा शाश्वत नियम है " पर वे हुए, अतः आश्चर्य हुआ । आवश्यक नियुक्ति १४३ आदि में दस सहस्र मुनियों के साथ भगवान् श्री ऋषभदेव की निर्वाणप्राप्ति का उल्लेख है । वह पृथक्-पृथक् समय और न्यूनाधिक अवगाहना की दृष्टि से है । एक समय में एक सौ आठ से अधिक सिद्ध नहीं होते । १४४
62