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गर्भ संहरण : शक की विचारणा इहगर्य,ति कटु समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, २ सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने ॥१६॥
अर्थ-"अरिहन्त भगवान् को नमस्कार हो (अरिहन्त भगवान् कैसे हैं?) धर्म की आदि करने वाले,धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले,अपने आप ही सम्यक्बोध को पाने वाले, पुरुषों में श्रेष्ठ, पुरुषों में सिंह, पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत-कमल के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान,लोक में उत्तम,लोक के नाथ,लोक के हितकर्ता, लोक मे दोपक तुल्य, लोक में उद्योत करने वाले, अभयदान देने वाले, ज्ञान रूपी नेत्र के देने वाले, मोक्ष मार्ग का उपदेश देने वाले, शरण के देने वाले, संयम जीवन को देने वाले, सम्यक्त्वरूपी बोधि के देने वाले, धर्म के देने वाले, धर्म के उपदेशक, धर्म के नेता, धर्म-रथ के सारथी हैं। चार गति का अन्त करने वाले, श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती हैं । भवसागर में द्वीप रूप, रक्षा रूप, शरण रूप, आश्रय रूप और आधार रूप हैं । अप्रतिहत एवं श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन के धारण करने वाले, प्रमाद से रहित, स्वयं रागद्वेष को जीतने वाले, दूसरों को जिताने वाले, स्वयं संसार सागर से तिरे हुए और दूसरों को तारने वाले हैं। स्वयं बोध पा चुके हैं, दूसरों को बोध देने वाले हैं। स्वयं कर्म से मुक्त है दूसरों को मुक्त कराने वाले हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं तथा शिवरूप (मंगलमय) है । अचलस्थिर-रूप अरुज-रोगरहित, अनन्त-अन्त रहित, अक्षय-क्षय रहित, अव्याबाधबाधा पीड़ा रहित, अपुनरावृत्ति-जहाँ से पुन: लौटना नहीं पड़ता ऐसी सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, भय को जीतने वाले हैं, रागद्वेष को जीतने वाले हैं । उन जिन भगवान् को मेरा नमस्कार हो।
नमस्कार हो श्रमण भगवान महावीर को, जो धर्मरूप आदि के करने वाले, चरम तीर्थंकर, पूर्व तीर्थकरों द्वारा निर्दिष्ट और अपुनरावृत्ति-सिद्धिगति को पाने की अभिलाषा वाले हैं । यहाँ (स्वर्ग) में रहा हुआ मैं वहाँ (देवानन्द के गर्भ में) रहे हुए भगवान् को वन्दना करता हूं। वहां रहे हुए भगवान् यहाँ रहे हुए मुझे देखें । इस प्रकार भावना व्यक्त करके देवराज देवेन्द्र श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन व नमन करता है और अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठता है।