________________
४८
कल्प सूत्र
एयमट्ठे सोच्च णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु उसभदत्तं माहणं एवं वयासी ॥११॥
अर्थ - उसके पश्चात् वह देवानन्दा ब्राह्मणी ऋषभदत्त ब्राह्मण से स्वप्न
-
के फलों को सुनकर और समझकर प्रसन्न हुई. हृष्ट-तुष्ट यावत् दशनाखूनों को साथ मिलाकर आवर्त करती हुई अर्थात् मस्तिष्क पर अंजलि चढांकर ऋषभदत्त ब्राह्मण से इस प्रकार बोली ।
मूल :
एवमेयं देवा णुपिया ! तहमेयं देवाणुप्पिया ! अवितहमेयं देवाप्पिया ! असंदिद्धमेयं देवापिया ! इच्छियमेयं देवाणुपिया ! पडिच्चियमेयं देवाणुपिया ! इच्चियपडिच्चियमेयं देवाणुपिया ! सच्चे णं एसमट्ठे से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कट्टु ते सुमिणे सम्मं पडिन्छह, ते सुमिणे सम्मं पडिच्छित्ता उसभदत्तेणं माहणेणं सद्धिं ओरालाई माणुस्साई भोगभोगाई भुजमाणी विहरइ ॥१२॥
अर्थ- 'हे देवानुप्रिय ! आपने जिन स्वप्नों का अर्थ प्रतिपादन किया है वह सर्वथा सत्य है, अवितथ (सही) है, असंदिग्ध है, इच्छित ( चाहने योग्य) है, प्रतीच्छित है और इच्छित प्रतीच्छित है । हे देवानुप्रिय ! यह अर्थ सत्य है जो आप कहते हैं, मैं उन स्वप्नों के फल को मान्य करती हूँ ।' उसके पश्चात् वह देवानंदा ऋषभदत्त ब्राह्मण के साथ मानव सम्बन्धी श्रेष्ठ सुखोपभोग करती हुई विचरने लगी ।
शक्र की विचारणा
मूल :
ते काणं तेण समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्जपाणी