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प मुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
स्व. मुख्तार सा. ने अपनी वकालत से अर्जित द्रव्य द्वारा वीर सेवा मंदिर के भवन का निर्माण कराकर उत्तम लायब्रेरी से युक्त संस्था बनाई थी, जिसमें उत्तम कोटि के जैनाजैन ग्रंथों का भण्डार था, विभिन्न प्रकार के कोष ग्रंथ विद्यमान थे। स्व. मुख्तार सा. स्वामी समन्तभद्र को भगवत्स्वरूप स्वीकार करते थे तथा उनके साहित्य को साक्षात् महावीर की दिव्य ध्वनि स्वरूप मानते थे। मूल रूप में वीर सेवा मंदिर, समन्तभद्राश्रम के नाम से दिल्ली करौल बाग में प्रस्तावित हुआ था और कई वर्षों तक 'समन्तभद्राश्रम' के नाम से ही विख्यात रहा। इसके पीछे एक साहित्यनुरागी सज्जन का विशेष सहयोग था जिनका नाम याद नहीं आ रहा है। (शायद रामदयाल जी था)
दिल्ली से चलकर सरसावा में यह संस्था वीर सेवा मंदिर के नाम से विख्यात हुई और शोधार्थी एवं साहित्यानुरागी सहस्राधिकजनों ने यहां बैठकर अध्ययन स्वरूप स्वाध्याय तप की आराधना की है। वीर सेवा मंदिर का भवन मेन रोड पर अवस्थित था और उस परिसर का प्राकृतिक सौन्दर्य जिन्होंने देखा, वे आनन्द विभोर हो उठते थे, मैं तो छः माह तक वहां के स्वर्गीय आनन्द का अनुभव करता रहा। मुख्य द्वार बड़ा चौड़ा और विशाल था जिससे हाथी, बस आदि बड़े वाहन गुजर सकते थे, यहां काफी बड़ी भूमि का विशाल परिसर था, जिसके चारों ओर ऊंची चार दीवारी थी। सन् 1946 में यहां बह्मा, विष्णु, महेश रूप अथवा सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय की भांति बाबू स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार, पं. डॉ. दरबारी लाल कोठिया 'न्यायाचार्य' और स्व. पंडित परमानंद जी की त्रिमूर्ति जैन साहित्य और जैन धर्म के अनुसंधान और परिस्कार में तल्लीन रहती थी।
मैं सन् 1946 के अप्रैल मास के अंत में ग्रीष्मावकाश पर स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी से घर (बीना) आया तो घर का ही होकर रह गया। घर आकर गृहस्थी को जंजीरों में जकड़ दिया गया और जब गलफंद गले पड़ गया तो उसके निर्वहण हेतु कुछ आजीविका भी चाहिए, फलतः स्याद्वाद, महाविद्यालय के स्वर्णिम, सुखद और ज्ञानाराधना स्वरूप विशुद्ध वातावरण को भूल गृहस्थी की चक्की में जुतना पड़ा, फलस्वरूप ग्राम के स्वनामधन्य शीर्षस्थ मनीषी, देशप्रेमी पं. बंशीधर जी व्याकरणाचार्य जी की शरण में पहुंचा