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102 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements जीवन को सम्यक्प से रुपांतरित करने के प्रयोजन की सिद्धि हेतु "मेरी भावना" एक सार्थक नाम है। इसमें ग्यारह पद्य हैं। इसमें वीतराग-विज्ञान के आद्य प्रतिपादक आचार्य कुन्दकुन्द एवं प्रखर तार्किक आचार्य समन्तभद्र आदि द्वारा प्रतिपादित वस्तु-स्वरूप, अनेकान्तदर्शन, परमात्मा का स्वरूप एवं उसकी प्राप्ति के उपाय का सार तो है ही, साथ ही अन्य भारतीय दर्शनों एवं साहित्य जैसे गीता, रामायण, महाभारत आदि की लोकोपयोगी शिक्षाओं का भी समावेश है। कवि ने मेरी भावना के नाम से जगत के सभी जीवों की उदात्त भावनाएं व्यक्त कर दी हैं।
परमात्मास्वरूप अरहंत-सिद्ध परमेष्ठी
मेरी भावना की प्रथम पंक्ति "जिसने राग-द्वेष-कामादिक जीते, सब जग जान लिया" मे परमात्मा का स्वरूप दर्शाया है। कवि का इष्ट परमात्मा राग-द्वेष-कामादिक विकारों का विजेता सर्वजगत का ज्ञाता और मोक्षमार्ग का उपदेश करने वाला है, भले ही उसे बुद्ध, महावीर, जिनेन्द्र, कृष्ण, महादेव, ब्रह्मा या सिद्ध किसी भी नाम से पुकारा जाये। ऐसे परमात्मा के प्रति भक्तिभाव से चित्त समर्पित रहे, यही कवि की भावना है। प्रथम पंक्ति में सर्वदोष विहीन, एवं सर्वमान्य विराट परमात्मा के दर्शन होते हैं जो अपने में सर्व जीवों के आत्म-स्वभाव की समानता एवं पंथ-निरपेक्ष के भाव को समेटे हैं। इसमें "निस्पृह हो उपदेश दिया," में अरहंत परमेष्ठी एवं या उसको "स्वाधीन कहो" में सिद्ध परमेष्ठी समाहित हो गये हैं। मोक्षमार्ग के पथिक विपरमेष्ठी - आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधु
___ कवि ने मेरी भावना के पद दो एवं तीसरे के पूर्वाद्ध में कुशलतापूर्वक आचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु परमेष्ठी का स्वरूप बताया है।"विषयों की आशा नहीं जिनके, साम्यभाव धन रखते हैं।" यह पंक्ति सामान्य साधु के अंतरंग स्वरूप को बताती है। ससार-दुःख का नाश करने वाले ज्ञानी-साधु इन्द्रिय भोगों और कषायों से विरक्त होकर समत्वभाव धारण करते हुए अहर्निश स्व-पर कल्याण में निमग्न रहते और बाह्य में खेद रहित अर्थात् सहज भाव से स्वार्थ त्याग अर्थात् शुभाशुभ कर्म-समूह की निर्जरा हेतु कठोर तपस्या करते