________________
204 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugvoer" Personality and Achievements करने के लिए ही यहां 'मानवाः' पद का खाश तौर से प्रयोग किया गया है, वे दूसरी गतियों में भी जा सकते हैं और जाते हैं और न अगले जन्म में व्रतहीन हो ही उनके लिए आवश्यक है। व्रतहीन होने के लिए चारित्र मोहनीय का एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय कारण माना गया है और चारित्र मोहनीय में आस्रव का कारण कषायोदयात् तीव्रपरिणामश्चारित्रयमोहस्य' इस सूत्र के अनुसार कषाय के उदय से तीव्र परिणाम का होना कहा गया है न कि किसी म्लेच्छ की सन्तान होना । म्लेच्छ की सन्तानें तो अपने उसी जन्म में व्रतों का पालन कर सकती है और महाव्रती मुनि तक हो सकती हैं तब उनके लिए अगले जन्म में आवश्यक रूप से व्रतहीन होने की कोई वजह ही नहीं हो सकती। इस प्रकार मनगठित तरीके से शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत विचारों की पुष्टि का वर्णन किया गया, जिससे इस प्रकार के ग्रन्थ श्रावक को विपरीत दिशा की ओर उन्मुख कर पतित बनाते हैं।
इस प्रकार जिनवाणी ने नाम पर समय समय पर शिथिल आचार के पोषक लोगों ने अनेक मनगढंत सिद्धान्तों को समाविष्टकर निर्मल वीतरागमय धर्म में अनेक विकृतियों को उत्पन्न किया है। आज भी अनेकों लोग इस प्रकार की प्रवृत्ति में संलग्न पाये जा रहे हैं। अपनी कलुषित मनोवृत्तियों के अनुसार जिनवाणी के शब्दों का विपरीत अर्थ करके अथवा मनमाने अर्थ निकालकर भोले-भाले श्रावकों को ठगाने का प्रयास कर रहे हैं। जैन परम्परा मे वही वचन पूज्य हैं जो वीतरागता से सम्बन्ध रखते हैं। जिनवाणी या निजवाणी का कोई महत्व नहीं है। हमारी दृष्टि में "जो सत्य सो मेरा" यह भावना होनी चाहिए न कि "जो मेरा सो सत्य"। हम सत्यग्राही दृष्टिकोण वाले बनें। सिद्धान्तों को यथार्थता की कसौटी पर कसकर ही उनका अनुगमन करें तो अभ्युदय या निःश्रेयस की प्राप्ति होगी अन्यथा हमसे परमार्थ तो कोसों दूर है। आज स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोर मुख्तार जैसे विद्वानों की आवश्यकता है जो निष्पक्ष रूप से वर्तमान समय में जैनधर्म के अनुयायियों में पनपती हुई विकृत मानसिकताओं को उजागर कर समाज को दिग्भ्रमित होने से बचा सकें। साहित्य मनीषी की सेवाओं के प्रति वन्दना करता हुआ कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।