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पं जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
और पूर्णता यथेष्ट सावधानी का उदाहरण है यह ग्रन्थ । ग्रन्थ का अति महत्वपूर्ण भाग उसकी प्रस्तावना है, जैन वाड्मय के अध्येता जानते हैं कि मुख्तार सा. प्रस्तावना लेखन में ग्रन्थ सम्पादकों के आदर्श रहे हैं। आपकी प्रस्तावना में ग्रन्थ ग्रन्थाकार विषयक अनेक अस्पृष्ट प्रसंग और तथ्य समाहित रहते हैं। उनकी सूक्ष्मेक्षण प्रज्ञा एवम् विशाल वाड्मय के श्रुताराधन के कारण ग्रन्थ और ग्रन्थकार विषयक तत्त्व हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हो जाते हैं। ग्रन्थकार का काल निर्धारण हो या ग्रन्थ की गहन छानबीन हो, किसी भी विषय पर जब वे लेखनी चलाते हैं तब एक-एक मन्तव्य की उपस्थापना में अनेक तर्क प्रस्तुत कर देते हैं। अपने मत की उपस्थापना एवम् भ्रान्तियों के निराकरण में वे ग्रन्थ-विस्तार से भयभीत नहीं होते। अतः अनेक ग्रन्थों पर बहुअध्ययन परक गहन अनुसन्धान समन्वित एवम् प्रमाण- बहुल उनकी प्रस्तावनाएं मूल ग्रन्थोऽधिक या द्विगुणायित हो जाती हैं।
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प्राकृत ग्रन्थ की प्रस्तावना में सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द और उनके ग्रन्थों का परिचय प्रस्तुत हैं, आपने कुन्दकुन्द का मूलनाम पद्मनन्दी आचार्य मानते हुए श्री देवसेनाचार्य के दर्शनसार की गाथा एवम् श्रवणबेलगोला के शिलालेख का पद्य' उद्धृत किया है। ग्रन्थ का परिचय प्रस्तुत करते समय
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ग्रन्थ
प- परिमाण, ग्रन्थ मंगलाचरण, ग्रन्थान्त्य प्रशस्ति ग्रन्थवर्ण्य विषय का तो वे पूर्ण परिचय के साथ विचार करते ही हैं, यदि टीकाकार या ग्रन्थ कृत-प्रतिज्ञा वाक्य से ग्रन्थ परिमाण में आधिक्य या न्यूनत्व हो तो समुचित अन्वेषण एवम् तर्कपूर्ण समाधान प्रस्तुत करते हैं। यथा प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय की गाथा - संख्या अमृतचन्द्रचार्य के अनुसार क्रमशः २७५, ४१५ व १७३ जबकि जयसेनाचार्यानुसार ३११, ४३९ व १८१ का उल्लेख करके सूची में भी जयसेन पाठानुसार (ज.) शब्द से इंगित किया है।
बोधपाहुड की गाथा "सद्ववियारों हुअ मासांसुत्तेसु जं जिणे भणियं" में उल्लिखित कुन्दकुन्द के गुरू भद्रबाहु को भद्रबाहु द्वितीय स्वीकार किया है। प्रमाण बहुत सटीक है - "सहविचारों" पद, क्योंकि प्रथम भद्रबाहु श्रुतकेवली थे उनके काल में जिनकथित श्रुत में विकार उत्पन्न नहीं हुआ था।