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274 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements नहीं है, बल्कि संगत सुघटित है। वे स्वेच्छा, बुद्धि-प्रयत्नादि की दृष्टि से कर्ता न होते हुए भी निमित्तादि की दृष्टि से कर्ता जरूर हैं और इसलिये उनके विषय में अकर्तापन सर्वथा एकान्त पक्ष घटित नहीं होता । तब उनसे तद्विषयक अथवा ऐसी प्रार्थनाओं का किया जाना भी असंगत नहीं कहा जा सकता, जो उनके सम्पर्क अथवा शरण में आने से स्वयं सफल हो जाती है। ये सब प्रार्थनाएं चित्त को पवित्र करने, जिनश्री तथा शिव सन्मति को देने और कल्याण करने की याचना को लिए हुए हैं आत्मोत्कर्ष एवं आत्म-विकास का लक्ष्य करके की गई हैं। सभी जिनेन्द्र देव के सम्पर्क, प्रभाव तथा शरण में आने से स्वयं सफल होने वाली अथवा भक्ति-उपासना के द्वारा सहज साध्य
वास्तव में परम वीतराग देव से विवेकीजन की प्रार्थना का अर्थ देव के समक्ष अपनी भावना को व्यक्त करना है अथवा यों कहिए कि आलंकारिक भाषा में मन:कामना को व्यक्त करके यह प्रकट करना है कि वह आपके चरण-शरण एवं प्रभाव में रहकर और उससे कुछ पदार्थ-पाठ लेकर आत्मशक्ति को जाग्रत एवं विकसित करता हुआ अपनी इच्छा-कामना या भावना को पूरा करने में समर्थ होना चाहता है। उसका यह आशय कदापि नहीं होता कि वीतराग देव भक्ति-भावना से द्रवीभूत होकर अपनी इच्छा शक्ति अपना प्रयत्नादि को काम में लाकर उसका कोई काम कर देंगे।
समन्तभद्र-विचार-दीपिका का चौथ निबन्ध है - पुण्य-पाप की व्यवस्था कैसे? इस सम्बन्ध में मुख्तासर साहब ने पुण्य-पाप के बन्ध के सम्बन्ध में प्रचलित सामान्य धारणाओं का खण्डन करके पुण्य-पाप की व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामी समन्तभद्र के मत की सप्रमाण पुष्टि की है।
पुण्य-पाप का उपार्जन कैसे होता है - कैसे किसी को पुण्य लगता, पाप चढ़ता अथवा पाप-पुण्य का उसके साथ सम्बन्ध होता है। यह एक विचारणीय समस्या है। अधिकांश विचारकों की यह एकान्त धारणा है कि दूसरों को दुःख देने, दुःख पहुंचाने, दु:ख के साधन जुटाने अथवा उनके लिए किसी भी तरह दुःख का कारण बनने से नियमतः पाप होता है - पाप का आस्रव बन्ध होता है। इसके विपरीत दूसरों को सुख देने, सुख पहुंचने, सुख