Book Title: Jugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 361
________________ 310 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements हो जावेगा, इसी से मैं नहीं जाता हूँ । परन्तु अनेकान्त रूप से विचार करने पर यह तर्क / कथन व्यभिचारी ठहरता है। पं जी आगे लिखते हैं अतिपरिचयादवज्ञा इति यद्वाक्यमृषैव तद्भाति । अतिपरिचितेऽप्यनादौ संसारेऽस्मिन न जायतेऽवज्ञा ॥ 'अनादिकाल से जिसका परिचय है ऐसे संसार से किसी भी संसारी की अवज्ञा नहीं है, संसार इस विषयभोग तथा रागादि भावों से मुख नहीं मोड़ता है और न उनकी कुछ अवज्ञा करता है, बल्कि संसारी जीव उल्टा उनके लिए उत्सुक और उनकी प्राप्ति/पुष्टि में अनेक प्रकार से दत्तचित्त बना रहता है।" इसलिए "अतिपरिचयादवज्ञा " ऐसा सिद्धान्त / तर्क व्यभिचारी व मिथ्या सिद्ध होता है । 44 अत: यह निबध वास्तविक रूप से " अतिपरिचयादवज्ञा " के सिद्धान्त को लेकर भटकते युवा मन में शिक्षा का संचार कर समाज व युवावर्ग के लिए प्रेरणास्पद है। "माँस भक्षण में विचित्र हेतु " नामक निबन्ध में पं श्री जुगलकिशोर जी ने मांसाहारी व्यक्तियों के लिए श्रेष्ठ और अनुपम तर्क प्रस्तुत किया है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी के पुरुषार्थ सिद्धपाय ग्रन्थ के आधार पर स्वयं श्लोकों का सृजन करके तर्क प्रस्तुत किया है। यह उनकी बुद्धि कौशल और तर्कपूर्ण शिक्षा को उजागर करता है। एकान्त रूप से मांसाहारी तर्क देते हैं, जो युगवीर निबंधावली पृ 764 पर दृष्टप्य है - माँसस्य मरणं नास्ति, नास्ति मांसस्य वेदना । वेदनामरणाभावात्, को दोषों मांस भक्षणे ॥ मास का मरण नहीं होता, न ही मांस में वेदना होती है इसलिए वेदनामरण के अभाव से मांस में दोष नहीं है अतएव खा लेना चाहिए। ऐसी विचित्र बात को सुनकर सभी हतप्रभ रह जाते और मांस खाने लगते। जबकि जैन ग्रन्थों व हिन्दू वेद पुराणों में मास का निषेध सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। 'अहिंसा का शंखनाद' पृ. 10 पर कवि सरमनलाल 'सरस' कहते हैं कि --

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