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प जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
खोज करने में दूर तक विख्यात था और अन्य देशों के लिए आदर्श स्वरूप था, वह आज लोभ के वशीभूत होकर दुराचारों और कुकर्मों की रंगभूमि बना हुआ है। सारी सद्विधायें इससे रूठ गई हैं और यह अपनी सारी गुण गरिमा तथा प्रभा को खोकर निस्तेज हो बैठा है।"
(पंडित जी के ही शब्दों में वही पृ. 774 पर देखें -)
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"जब तक हमारे भारतवासी इस लोभ कषाय को कम करके अपनी अन्याय रूप प्रवृत्ति को नहीं रोकेंगे, जब तक स्वार्थ त्यागी बनना नहीं सीखेंगे, तब तक वे कदापि अपने देश तथा समाज का सुधार नहीं कर सकते हैं और न ससार सुख का अनुभव कर सकते हैं। क्योंकि सुख नाम निराकुलता का है और निराकुलता आवश्यकताओं को घटाकर परिग्रह को कम करके संतोष धारण करने से प्राप्त होती है।"
इस प्रकार लोभ न्याय नीति की विराधना करने का कारण और संतोष परमसुख को प्राप्त कराने का कारण है।
छठे निबंध विवेक की आँख में पं. जी ने समाज के कर्णधारों की विवेक परख पर व्यंग्यात्मक शिक्षा प्रदान की है। धर्म सिद्धान्त का जानकार विद्वानों का निरादर कर नौटंकी / नाच पर प्रसन्न हो, पैसा बहाता है। यही बात पं. जी ने इस निबंध के माध्यम से कही है। उन्हीं की पंक्तियों में जो यु. नि. पृ. 778 पर है
" वेश्या के हावभाव को निरखकर सब लोग बड़े लट्टू हो रहे है और अपनी मस्ती में इस बात को बिल्कुल भूले हुए है कि किसी का क्या कुछ दर्जा या अधिकार है और क्या कुछ हमारा कर्त्तव्य व कर्म है।"
तभी पं. जी समाज की विचित्र स्थिति को श्लोक के माध्य से प्रकट करते हैं -
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फूटी आंख विवेक को, कहा करे जगदीश ।
कंचनिया को तीन सौ मनीराम को तीस ॥
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