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पं जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर " व्यक्तित्व एवं कृतित्व जाता है, जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है। किन्तु उस अनर्थ को दूर करने का कार्य भी विवेकी और सिद्धान्तनिष्ठ विद्वान् करते रहे हैं। यही कार्य मुख्तार जी ने किया है। आ. वट्टकेरकृत मूलाचार के नवें अनगारभावनाधिकार में उन कंदमूलफलों की प्रासुकता-अप्रासुकता पर विचार किया गया है, जो मुनियों के भक्ष्य-अभक्ष्य से संबंधित है। ये गाथायें हैं
फलकं दमूलीयं अणगिपकं तु आगमं किंचि। णच्चा अणेसणीयं ण वि य पडिच्छति ते धीरा॥९॥५९॥
अर्थात् फलानि कंदमूलानि नीगणनि चाण्निपक्वानि न भवंति यानि अन्यदपि आमकं यत्किंचिदनशनीयं ज्ञात्वा नैव प्रतीच्छन्ति ते धीरा इति।
दूसरी गाथा हैजं हवदि अणत्वीयं णिवट्टिमं फासुयं कपं चेव । णाऊण एसणीयं तं मिक्खं मुणी पडिच्छंति ॥ ९६० ॥
अर्थात् यद्-भवति अबीजं निर्बीजं निर्वर्तिमं निर्गतमध्यसारं प्रासुकं कृतं चैव ज्ञात्वाऽशनीयं तद् भैक्ष्यं मुनयः प्रतीच्छन्ति । अर्थात् जो बीज रहित हैं, जिनका मध्यसार निकल गया है अर्थात् जो प्रासुक किये गये हैं- ऐसे सब खाने के पदार्थों को भक्ष्य समझकर मुनि भिक्षा में ग्रहण करते हैं।
यद्यपि, सुधारवादी माने जाने वाले आ. मुख्तार सा. ने इन गाथाओं को अपने लेखों में जो आशय व्यक्त किया है, उस पर आज भी मतभेद है। उनका इस संबंध में यह आशय है कि "जैन मुनि कच्चे कंद नहीं खाते परन्तु अग्नि में पकाकर शाक-भाजी आदि रूप में प्रस्तुत किये गये कंदमूल वे जरूर खा सकते हैं। दूसरी गाथा का उनके अनुसार यह आशय है कि "प्रासुक किये हुए पदार्थों को भी भोजन ग्रहण कर लेने का उनके लिए विधान किया गया है। यद्यपि अग्निपक्व भी प्रासुक होते हैं। अन्त में मुख्तार जी ने कहा है कि यद्यपि अग्निपक्व भी प्रासुक होते हैं। अन्त में मुख्तारजी ने कहा है कि इसमें कोई संदेह नहीं रहता कि दिगम्बर मुनि अग्नि द्वारा पके हुएं शाक-भाजी आदि रूप में प्रस्तुत किये हुए कंद-मूल जरूर खा सकते हैं। हाँ, कच्चे कंद-मूल वे नहीं