Book Title: Jugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 358
________________ प गुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व 307 'मुख्तार' जी द्वारा लिखित "मैं और आप दोनों लोकनाथ।"निबंध में समानता के भाव को प्रदर्शित किया है। लौकिक ज्ञान की महिमा भी प्रगट की है। एक भिक्षुक राजा से कहता है कि "अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथावुभावपि।" अर्थात् हे राजन् ! मैं और आप दोनों ही लोकनाथ हैं। राजा समझ नहीं पाता, अतः क्रोधित होता, परन्तु भिक्षुक से सिद्ध करने के लिए कहता। तब वह भिक्षुक विनय-वचनादि द्वारा सामाजिक दृष्टि से सिद्ध करता है जो कि युगवीर निबंध पृ.757 पर दृष्टव्य है - "बहुब्रीहिरहं राजन् षष्टी तत्पुरुषो भवान्।" अर्थात् राजन् बहुब्रीहि समास से 'मैं' और षष्ठी तत्पुरुष से 'आप' लोकनाथ सिद्ध होते हैं। "लोकाजना नाथाः स्वामिनो यस्यैवंविधोऽहं याचकल्वात्।" याचक या भिखारी होने के कारण सब लोग जिसके नाथ हैं ऐसा 'मैं' लोकनाथ हूँ। "लोकानां जनानां नाथ एवं विधस्त्वं राजत्वेन पालकत्वात्।" राजा होकर मनुयों की रक्षा व पालन करने के कारण लोगों के जो नाथ है सो ऐसे 'आप' लोकनाथ हैं। इस प्रकार तर्कपूर्ण सामासिक ज्ञान से अज्ञ राजा बड़ा लज्जित हुआ परन्तु पं. जी यहाँ विशाल हृदय व समानता की दृष्टि को बताते हैं। जैसा कि 'मेरी भावना' पद्य 3 में दृष्टिगोचर होता है मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे, दीन-दुःखी जीवों पर मेरे उर से करूणा स्रोत बहे। दुर्जन-क्रूर कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे, साम्यभाव रक्खू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे। यही दृष्टि जैनदर्शन की वीतराग दशा का वर्णन करती है। जो कि समभाव से परिपूर्ण समाज कल्याण और राष्ट्रोत्थान में सहायक सिद्ध होती है। क्योंकि इसमें विद्वेष नहीं प्रेम समाहित है। महावीर स्वामी के सिद्धान्त को भी जो पूर्ण से हृदयंगम किए हैं "पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।"

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