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276 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Actuevements दुःख में कारण बनने के अनेक उदाहरण दिए गये हैं। निष्कर्ष रूप में वे कहते हैं कि चेतन प्राणियों की दृष्टि से भी पुण्य-पाप की उक्त एकान्त व्यवस्था सदोष है।
दूसरा पक्ष अपने में दुःखोत्पादन से पुण्य का और सुखोत्पादन से पाप का बन्ध होता है, इसका खण्डन करते हुए मुख्तार साहब स्वामी समन्तभद्र की निम्नकारिका उद्धृत करते हैं :
पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि।
वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युंज्यानिमित्ततः॥ यदि अपने में दुःखोत्पादन से पुण्य का और सुखोत्पादन से पाप का बन्ध ध्रुव है तो फिर वीतराग (कषायरहित) और विद्वान् मुनिजन भी सुखदुःख की उत्पत्ति के निमित्त कारण हैं । वीतराग और विद्वान मुनि के त्रिकाल योगादि के अनुष्ठान द्वारा कायक्लेशादि रूप दुःख की और तत्त्वज्ञान जन्य सन्तोष लक्षण रूप सुख की उत्पत्ति होती है। जब अपने में सुख-दुःख के उत्पादन से ही पुण्य-पाप बंधता है तो फिर अकषाय जीव पुण्य-पाप के बन्धन से कैसे मुक्त रह सकते हैं।
स्वामी समन्तभद्र ने स्व-परस्थ सुख-दुःखादि की दृष्टि से पुण्य-पाप की जो सम्यक् व्यवस्था अर्हन्मतानुसार बतलाई है उसकी प्रतिपादक कारिका इस प्रकार है
विशुद्-िसंक्लेशाङ्गं चेत् स्व-परस्थं सुखाऽसुखम् ।
पुण्य-पापास्रवो युक्तौ न चेद् व्यर्थस्तवार्हता॥
अर्थात् सुख -दुःख आत्मस्थ हो या परस्थ अपने को हो या दूसरे कोवह यदि विशुद्धि का अंग है तो वह पुण्यास्रव का, संक्लेशाङ्ग है तो पापात्रव का हेतु है।
मुख्तार साहब कहते हैं कि यहाँ संक्लेश का अभिप्राय आर्त-रौद्र ध्यान के परिणाम से है-'आर्त-रौद्र-ध्यान परिणामः संक्लेशः' ऐसा अकलंक