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पं. जुगलकिशोर मुखार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व - 'आधार' भी है। आचार के अन्तर्गत पंचाचार - दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य (मूलाचार) शामिल है। इसी प्रकार - "सकलं विकलं धरणं" अथवा 'अणु-गुण-शिक्षा-व्रतात्मकं चरणं' का प्रयोग किया जा सकता है। ग्यारह प्रतिमाएं वस्तुतः श्रावकों की ग्यारह कोटियां या Classification है जो उत्तरोत्तर गुणवृद्धि को प्राप्त होती जाती हैं। उत्तरवर्ती में पूर्ववर्ती के सम्पूर्ण गुण निहित होते हैं।
इस प्रकार पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार सा. ने 'रत्नकरण्ड' का भाष्य समीचीन धर्मशास्त्र के नाम से तीन उद्देश्यों की वृद्धि हेतु लिखा :
(1) हित वृद्धि (2) शान्ति वृद्धि और (3) विवेक वृद्धि।
हित-स्वपर होता है शान्ति स्व के लिए होती है और विवेक 'पर' के लिए किया जाता है।
'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' ग्रन्थ की लोकोपयोगिता पर डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने कितना मार्मिक कहा - स्वामी समन्तभद्र का निजी चरित्र ही उनके अनुभव की वाणी थी। उन्होंने जीवन को जैसा समझा वैसा लिखा/कहा अन्तर के मेल को धोना ही सबसे बड़ी सिद्धि है। जब तक अध्यात्म की ओर, मनुष्य की उसी प्रकार सहज प्रवृत्ति नहीं होती, जैसी काम-सुख की ओर तब तक धर्म साधना में उसकी निश्चल स्थिति नहीं हो पाती।
समीचीन धर्मशास्त्र के लेखक के संबंध में Dr.A. N. Upadyay लिखते हैं :
"Pandit Jugal Kishore Mukhtar is a point-rank Soholar, He has a hunger and thirst or now facts and fresh evidence, He has spout hisvaluable time in many miscelleneous Colleetions and gatherod to gather a lot of useful material,"
इस भाष्य ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' के रहस्यों को उद्घाटित किया। धर्म की सर्वव्यापी लोक कल्याणी परिभाषा दी एवं जीवन के करणीय आचार पक्ष को आगम के आलोक में 'दृश्यमान किया।