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प जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
स्वरूप समझाया है। साथ ही, परमात्मा को उपादेय (आराध्य), अन्तरात्मा को उपायरूप आराधक और बहिरात्मा को हेय (त्याज्य) ठहराया है। इन तीनों आत्मभेदों का स्वरूप समझाने के लिए ग्रन्थ में जो कलापूर्ण तरीका अख्तियार किया गया है वह बड़ा ही सुन्दर एवं स्तुत्य है और उसके लिए ग्रन्थ को देखते ही बनता है।"
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वह कलात्मक तरीका है बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा शब्दों के अर्थ को खोलने वाले विविध पदों का स्थान-स्थान पर प्रयोग। उन पदों को पढ़ने से ही बहिरात्मादि शब्दों का अभिप्राय सरलतया हृदयंगम हो जाता है। उन समस्त पदों की सूची मुख्तार जी ने प्रस्तावना में पद्यक्रमांक सहित दी है। उनके कुछ उदाहरण इस प्रकार है:
बहिरात्मार्थसूचक पद : शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिः आत्मज्ञानपराङ्मुखः, अविदितात्मा, देहे स्वबुद्धिः, उत्पन्नात्ममति देंहे, परत्राहम्मतिः, देहात्मदृष्टिः, अनात्मदर्शी ।
अन्तरात्मार्थसूचक पद : स्वात्मन्येवात्मधीः, देहादौ विनिवृत्तात्मविभ्रमः, स्वस्मिन्नहम्मतिः, आत्मवित्, स्वात्मन्येवात्मदृष्टिः, आत्मदर्शी, दृष्टात्मत्त्वः ।
परमात्मार्थसूचक पद : अक्षयानन्तबोध:, विविक्तात्मा, परमानन्दनिर्वृतः, स्वस्थात्मा, विद्यामयरूपः, केवलज्ञप्तिविग्रहः ।
अर्थविशेष को प्रकट करने वाले इन विविध पदों का प्रयोग ग्रन्थकार की अद्भुत साहित्यिक प्रतिभा का उद्घोष करते हैं।
समाधितन्त्र के प्रत्येक पद्य में वर्णित विषय की अनुक्रमणिका संलग्न करके भी पद्यों के अर्थ को समझना सुकर बना दिया गया है। इसने मुख्तार सा. की सम्पादनकला में चार चाँद लगा दिये हैं।
ग्रन्थनाम और पद्मसंख्या का निर्णय
ग्रन्थकार पूज्यपादस्वामी ने अन्तिम पद्य में ग्रन्थ को 'समाधि तन्त्र' नाम से अभिहित किया है। टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इसे 'समाधिशतक' नाम