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"अध्यातम-रहस्य" का भाष्य और उसके
व्यारव्याकार
पं. निर्मल जैन, सतना (म. प्र.)
"अध्यात्म-रहस्य" ग्रंथ तथा उसका भाष्य दो ऐसे मनीषी विद्वानों के विचारों का सम्मिलन है जो अपनी विद्वत्ता के कारण अपने-अपने समय में विद्वशिरोमणि बनकर रहे। इतना ही नहीं दोनों ने ग्रंथ रचना में अपने ज्ञान का सम्यक् उपयोग करके सरस्वती भण्डार की जो श्रीवृद्धि की और ज्ञान के साथ आचरण का जो सामंजस्य बनाकर रखा उसके कारण वे आचार्यकल्प और आचार्य जैसे संबोधनों से भी स्मरण किये जाते रहे।
इन दोनों विद्वानों ने जैन दर्शन के गूढ़तम विषय योग और ध्यान को भी अपने चिंतन में उतारा और उसका नवनीत जिज्ञासु श्रावकों के लिये लिपिबद्ध किया। दोनों विद्वानों ने मौलिक लेख के साथ ही पूर्वाचार्यों के गूढ़ रहस्य वाले ग्रंथों की सरल टीकायें भी की। दोनों विद्वानों की एक समानता और भी उल्लेखनीय है कि इन्हें अपने-अपने समय में ही पूर्वाचार्यों के ग्रंथों में से कुछ नये अथवा प्रचलन के विपरीत प्रकरण उद्घाटित करके उनका दृढ़तापूर्वक समर्थन करने के कारण कतिपय विद्वानों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं का कोपभाजन भी बनना पड़ा।
यद्यपि इन दोनों विद्वानों के समय में 700 वर्षों का अंतराल है परंतु दोनों ने ही अपने-अपने समय में जैनधर्म को संकीर्ण बनाने वाली विचारधाराओं का विरोध करके स्पष्ट घोषित किया था कि - "केवल जैन कुल में जन्म लेने वाले ही जैन नहीं होते वरन अपने आचरण को जैनत्व के अनुकूल बनाकर कोई भी जैन बन सकता है।
अध्यात्म-रहस्य ग्रंथ पंडितप्रवर आशाधरजी की कृति है। यथानाम यह गंथ अध्यात्म के रहस्यों को योग और ध्यान के द्वारा उद्घाटित करने की