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प जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व
247 "यह ग्रन्थ आध्यात्मिक है और जहाँ तक मैंने अनुभव किया है, ग्रन्थकार महोदय के अन्तिम जीवन की कृति है, उस समय के करीब की रचना है, जबकि आचार्य महोदय की प्रवृत्ति बाह्य विषयों से हटकर बहुत ज्यादा अन्तर्मुखी हो गयी थी और आप स्थितप्रज्ञ जैसी स्थिति को पहुँच गये थे। यद्यपि जैन समाज में अध्यात्मविषय के कितने ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं और प्राकृतभाषा के समयसार जैसे महान् एवं गूढ ग्रन्थ भी मौजूद हैं, परन्तु यह छोटा-सा संस्कृत ग्रन्थ अपनी खास विशेषता रखता है। इसमें थोड़े ही शब्दों द्वारा सूत्ररूप से अपने विषय का अच्छा प्रतिपादन किया गया है। प्रतिपादनशैली बड़ी ही सरल सुन्दर एवं हृदयग्राहिणी है। भाषा सौष्ठव देखते ही बनता है और पद्यरचना प्रसादादि गुणों से विशिष्ट है। इसी से पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़ने को मन नहीं होता। ऐसा मालूम होता है कि समस्त अध्यात्मवाणी का दोहन करके अथवा शास्त्रसमुद्र का मन्थन करके जो नवनीतामृत निकाला गया है, वह सब इसमें भरा हुआ है और अपनी सुगन्ध से पाठक-हृदय को मोहित कर रहा है। इस ग्रन्थ के पढ़ने से चित्त बड़ा ही प्रफल्लित होता है, पद-पद पर अपनी भूल का बोध होता चला जाता है, अज्ञानादि मल छंटता रहता है और दुःखशोकादि आत्मा को सन्तप्त करने में समर्थ नहीं होते। प्रतिपाद्य विषय के स्रोतों का निरीक्षण
___ समाधितन्त्र के प्रतिपाद्य विषय के स्रोतों पर प्रकाश डालते हुए मुख्तार जी कहते हैं -
"इस ग्रन्थ में शुद्धात्मा के वर्णन की मुख्यता है और वह वर्णन पूज्यपाद ने आगम, युक्ति तथा अपने अन्तकरण की एकाग्रता द्वारा सम्पन्न स्वानुभव के बल पर भले प्रकार जाँच-पड़ताल के बाद किया है, जैसा कि ग्रन्थ के निम्न प्रतिज्ञा वाक्य से प्रकट है
श्रुतेन लिङ्गेन यथात्मशक्ति समाहितान्तः करणेन सम्यक् । समीक्ष्य कैवल्यसुखस्पृहाणां विविक्तमात्मानमथाभिषारये।।
ग्रन्थ का तुलनात्मक अध्ययन करने से भी यह मालूम होता है कि इसमें श्री कुन्दकुन्द जैसे प्राचीन आचार्यों के आगम वाक्यों का बहुत कुछ अनुसरण किया गया है। कुन्दकुन्द का